पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/१५७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

द्वितीय कोशस्यान चित्त-विप्रयुक्त अनुविधान होता है । किन्तु दशाशैक्षधर्मसमन्वागमसूत्र में 'समन्वागॅम' शब्द एक द्रव्यधर्म को सूचित करता है । २. सौत्रान्तिक-यदि समन्वागम' शब्द का अर्थ चक्रवतिसूत्र में वशित्व है तो फिर आप यह कैसे कहते हैं कि एक दूसरे सूत्र में इसी शब्द का अर्थ प्राप्ति नामक एक द्रव्यान्तर है ? वास्तव में (१) इस प्राप्ति की प्रत्यक्ष उपलब्धि नहीं होती यथा रूप-शब्दादि की होती है, यथा राग-द्वेषादि की होती है। (२) उसके कृत्य से प्राप्ति का अस्तित्व अनुमित नहीं होता, यथा चक्षुश्रोत्रादि (१.९) ज्ञानेन्द्रिय अनुमानग्राह्य हैं : क्योंकि सदृश कृत्य की उपलब्धि नहीं होती । अतः द्रव्य- धर्म के संभव न होने से अयोग है। [१८२] सर्वास्तिवादिन्--यह आपकी भूल है ! प्राप्ति का कृत्य है । यह धर्मो का उत्पत्ति-हेतु है ।' सौत्रान्तिक-प्रश्न-विसर्जन अयुक्त है : (१) आप मानते हैं कि दो निरोवों की प्राप्ति हो सकती है किन्तु यह असंस्कृत हैं और असंस्कृत अनुत्पाद्य हैं : केवल संस्कृत हेतु' (१.७ डी) होते हैं। (२) संस्कृत धर्मो के संवन्ध में हमें यह कहना है कि अप्राप्त धमों की प्राप्ति नहीं होती। और उन धर्मो की भी प्राप्ति नहीं होती जो भूमि-संचार या वैराग्य के कारण त्यक्त हो चुके हैं। प्रथम की प्राप्ति अनुत्पन्न है, द्वितीय की प्राप्ति निरुद्ध हुई है। अतः इन धर्मो की कैसे उत्पत्ति हो सकती है यदि उनकी उत्पत्ति का हेतु प्राप्ति है ? सर्वास्तिवादिन् --इन धर्मों की उत्पत्ति में सहज-प्राप्ति हेतु है (सहजप्राप्तिहेतुक) । [व्या० १४६.४] सौत्रान्तिक अयुक्त उत्तर ! यदि धर्मो की उत्पत्ति प्राप्ति के योग से होती है तो (१) जाति और जाति-जाति (२.४५ सी) क्या करते हैं; (२) 'असत्वाख्य' धर्मों की उत्पत्ति नहीं होती; (३) सकलबन्धन पुद्गलों में मृदु-मध्य-अधिमान क्लेशों का प्रकार-भेद कैसे युक्त होगा क्योंकि प्राप्ति का अभेद है : सब पुद्गल कामावचर क्लेश की उन्हीं प्राप्तियों से समन्वागत हैं। क्या आप कहते हैं कि यह भेद प्राप्ति के भिन्न हेतुओं के कारण होता है हमारा उत्तर है कि यह हेतु ही मृदु-मध्य-अधिमात्र क्लेश की उत्पत्ति में एकमात्र हेतु है । जिस कारण से यह भेद होता है उसी कारण से इनकी उत्पत्ति भी हो सकती है। इसलिये प्राप्ति उत्पत्ति हेतु नहीं है। [१८३] ३. सर्वास्तिवादिन--कौन कहता है कि प्राप्ति धर्मो की उत्पत्ति का हेतु है ? हम उसका यह कारिन नहीं बताते । हमारे अनुसार प्राप्ति वह हेतु है जो सत्वों के भाव की व्यवस्था करता है । हम इसका व्याख्यान करते हैं । मान लीजिये कि प्राप्ति का अस्तित्व नहीं है: लौकिक ४ प्रवचन के अनुसार वस्तु द्रव्यसत् है या प्रज्ञप्तिसत् । [व्या० १४५.२३] १ लोभचित्त के उत्पाद का हेतु इस अनागत लोभचित्त की प्राप्ति है। अनास्रव धर्म, दुःखे धर्मज्ञानक्षान्ति आदि । यथाक्रम कामवातु के अक्लिष्ट और क्लिष्ट धर्म। २ 3