पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/१५८

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अभिधर्मकोश मानस आर्य और पृथाजन का क्या व्यवस्थान होगा ? भेद केवल इसमें है कि आर्य में कतिपय अनास्रव धर्मों की प्राप्ति तब भी होती है जब उनका लौकिक मानस होता है। सौनान्तिक-हमारे मत से यह व्यवस्थान हो सकता है कि पहला ग्रहीण क्लेश है, दूसरा अप्रहीण क्लेश है (प्रहीणापहीणक्लेशताविशेष [व्या० १४६.२९ ]) । सर्वास्तिवादिन---निस्संदेह; किन्तु प्राप्ति के अस्तित्व को न मानकर यह कैसे कह सकते हैं कि इनका क्लेश प्रहीण है, इनका अप्रहीण है ? प्राप्ति के होने पर यह व्यवस्थान होता है। क्लेश प्रहीण तभी होते हैं जब क्लेश-प्राप्ति का निगम होता है। जब तक उसकी प्राप्ति रहती है तब तक क्लेश प्रहीण नहीं होता । ४. सौत्रान्तिकवाद-हमारे मत में क्लेशों का प्रहाण-अप्रहाण आश्रयविशेष (२.५ और ६, ४४ डी) से सिद्ध होता है। आर्यो में मार्ग-बल से (सत्यदर्शन, भावना) आश्रय-परावृत्ति होती है, उनके आश्रय का अन्यथाभाव होता है (तथापरावृत्त, अन्यथाभूत) । जो क्लेश एक बार मार्ग- बल से प्रहीण हो चुका है उसकी पुनरुत्पत्ति नहीं हो सकती। यथा अग्निदग्ध ब्रीहि का अन्यथा- भाव होता है, वह अवीजीभूत होता है उसी प्रकार आर्य प्रहीण-क्लेश कहलाता है क्योंकि उसका आश्रय क्लेशों के लिए अबीजीभूत हो गया है । लौकिक मार्ग से क्लेशों का आत्यंतिक प्रहाण नहीं होता। यह उन्हें उपहत या विष्कम्भित करता है : पृथग्जन को जो केवल लौकिक मार्ग का अभ्यास करता है प्रहीण-क्लेश कह सकते हैं यदि उसके आश्रय में क्लेश-बीज का उपधात मात्र होता है। विपर्ययरूपेण उसे अप्रहीण-क्लेश कहते हैं यदि वीज अनिर्दग्ध या अनुपह्त होते हैं। जो उक्त विधि से 'अप्रहीण' है उसे क्लेश से समन्वागत कहते है। जो प्रहीण है उसे असमन्वागत कहते हैं। समन्वागम-असमन्वागम' द्रव्यसत् नहीं हैं किन्तु प्रज्ञप्ति-धर्म हैं। [१८४] यह क्लेश की प्राप्ति-अप्राप्ति के विषय में है । कुशल धर्मो की प्राप्ति-अप्राप्ति के सम्बन्ध में दो प्रकार हैं: (१) अयत्नभावी औपपत्तिक (उपपत्तिलाभिक) कुशल धर्म, (२) प्रायोगिक (प्रयोगलाभिक) कुशल धर्म (२.७१ वी)। जब किसी के आश्रय में उत्पत्तिलाभिक कुशलों के वीजभाव का अनुपघात होता है (आश्रयस्य तद्वीजभावानुफ्धातात्) तब कहते हैं कि वह प्रथम से समन्वागत है । जव यह बीजभाव उपहत होता है तब कहते हैं कि वह कुशल धर्मों से असमन्वागत है 1-वास्तव में यदि क्लेश, वीज का अत्यन्त समुद्धात (अपोद्धरण) हो सकता है जैसा कि आर्य में होता है तो कुशल धर्मो के बीजभाव का अत्यन्त समुद्घात नहीं होता । इस अवधारण के साथ मिथ्यादृष्टि से समुच्छिन्न- कुशलमूल (४.७९ सी) पुद्गल के लिये कहते हैं कि उसने इन मूलों का प्रहाण किया है क्योंकि उसके आश्रय के कुशलमूल के बीजभाव का मिथ्यादृष्टि से उपधात जव किसी पुद्गल में प्रायोगिक धर्म-श्रुत-चिन्ता-भावना से उत्पन्न प्रायोगिक कुशल धर्म को उत्पन्न होने पर उनको पुनः] उत्पन्न करने के सामथ्यंनिशेप (वशित्व) का भविधात