पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/१५९

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द्वितीय कोशस्थान : चित्त-विप्रयुक्तं होता है तब उस पुद्गल के लिये कहते है कि वह द्वितीय प्रकार के कुगल धर्मों से समन्वागत [१८५] अतः जो समन्वागम को आख्या का लाभ करता है,वह अन्य द्रव्यधर्म (नान्यद् द्रव्यम्) नहीं है अर्थात् सर्वास्तिदादियों की कल्पित 'प्राप्ति' नहीं है किन्तु आश्रय (=नामरूप) की एक विशेष अवस्था है [व्या १४७.३३१: १. क्लेश-बीज आर्य मार्ग से अन- पोद्धृत हैं:.२. क्लेश-बीज लौकिक मार्ग से अनुपहत हैं; ३. औपपत्तिक कुशल-बीज मिथ्यादृष्टि से अनुपहत है; ४. कुशल-प्रयोग के बीज का परिपुष्ट-वशित्व है। अतः अनपोद्धृत, अनुपहत, परिपुष्ट-बगित्व काल में बीज ही प्राप्ति की आख्या का लाभ करते है।' [व्या १४७.३१] किन्तु यह बीज क्या है ? सर्वास्तिवादिन् प्रश्न करता है । बीज से अभिप्रेत नामरूप (३.३०) अर्थात् पंचस्कन्धात्मक रूप है जो सन्ततिपरिणाग- विगंप के द्वारा साक्षात् या पारंपर्येण फलोत्पत्ति में समर्थ है। सन्तति हेतु-फलभूत वैयविक संस्कार हैं जो नरन्तर्येण प्रवृत्त होते हैं । परिणाम सन्तति का अन्यथात्व अर्थात् सन्तति का प्रतिक्षण अन्यथोत्पाद है। विशेष अथवा इस परिणाम का परमोत्कर्ष सन्तति का वह क्षण है जो साक्षात् फलोत्पत्ति में समर्थ है। २ वैभाषिक दीप दिखाते है--सूत्र में उक्त है कि "जो लोभ से समन्वागत है वह चार स्मृत्युपस्थानों का उत्पाद (६.१४) करने में असमर्थ है। [१८६] सौत्रान्तिक-इस सूत्र में लोभ के 'समन्वागम' से लोग का अधिवासन (अभ्यनुज्ञान) अयवा लोभ का अविनोदन (अव्युपगम) समझना चाहिये। सूत्र यह नहीं कहता कि जिस पुद्गल में लोभ का बीज होता है वह स्मृत्युपस्थानों के उत्पादन में असमर्थ है । वह कहता है कि लोन का समुदाचार एक पुद्गल को इन स्मृत्युपस्थानों के तत्काल उत्पादन के लिये अयोग्य कर देता

. संक्षेप में जिस किसी अर्थ में हम समन्वागम' को लें, चाहे उत्पत्ति-हेतु के अर्थ में, व्यवस्था. हेतु को अर्थ में, आश्रयविशेष या अविवासन के अर्थ में, समन्यागम सर्वथा प्रनप्ति-धर्म है, द्रव्य- धर्म नहीं है । इसी प्रकार असमन्त्रागम जो समन्वागम का प्रतिषेधमात्र है प्रनप्ति-धर्म है। २ तत्पन्नस्तदुत्पत्तिवशित्वाविघातात् समन्वागमः । व्या० १४७.२६] परमार्य, ३, पृ० १८१, कालम २ शुआन-चाज : "आयय में अनयोढत, अनुपहत, वशित्वपरिपुष्ट बीज होते हैं इस अवस्या के प्रति प्रान्ति' शब्द का व्यवहार होता है।" यह लक्षण वैनापिकों के प्रश्नों का विसर्जन है: "यपा बोज चित्त से भिन्न या अभिन्न एक द्रव्यान्तर है ?", "क्या सन्तति एक अवस्थित द्रव्य है जिसमें धर्मान्तर को निवृत्ति होने पर धर्मान्तर का प्रादुर्भाव होता है?", "क्या परिणाम सांस्यों का परिणाम है ?" २.५४ सी-डी देखिये सन्ततिपरिणामवाद ४.३ सी में पुनः व्याख्यात है। १०