पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/१६२

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४ १४८ अभिधर्मकोश किन्तु आर्यमार्ग से प्राप्त प्रतिसंख्यानिरोध की प्राप्ति अनास्रव, अहेय है। इसी प्रकार मार्गसत्य की प्राप्ति को जानना चाहिए।' हमने यह सामान्य नियम व्यवस्थापित किया है कि त्रैयध्विक धर्म की प्राप्ति विविध हो सकती है (२.३७ ए) । विशेष कहना है । ३८ सी. अव्याकृत की प्राप्ति सहज है। २ अनिवृताव्याकृत धमों की प्राप्ति सहज है : उसकी प्राप्ति होती है यदि वह प्रत्युत्पन्न है, नही होती यदि वह अतीत या अनागत है। यदि वह अतीत है तो प्राप्ति अतीत है; यदि वह अनागत है तो प्राप्ति अनागतू है। इस धर्म की दुर्बलता के कारण। ३८ डी. दो अभिज्ञा और निर्माण वर्जित हैं। यह नियम सर्व अनिवृताव्याकृत धर्मो को लागू नहीं है । चक्षुरभिक्षा और श्रोत्राभिज्ञा (७.४५) और निर्माणचित (२.७२) बलवत् होते हैं क्योंकि प्रयोग-विशेष से उनकी निष्पत्ति होती है : अतः इनकी पूर्व-पश्चात्-सहज प्राप्ति होती है ।---कुछ आचार्यो ५ का मत है कि शैल्प- स्थानिक और ऐपिथिक (२.७२) प्रकार के अनिवृताच्याकृत धर्मों की प्राप्ति पूर्वज और पश्चात् कालज होती है यदि उनका अत्यर्थ अभ्यास किया गया है (अत्यर्थमभ्यस्तम् = भृशमात्मनः कृतम् [व्या० १५२.१७ आत्मनः के स्थान में आत्मसात् पाठ है। ] )। निवृतस्य च रूपस्य कामे अक्लिष्टाऽव्याकृताऽप्राप्तिः सातीताजातयोस्निधा ॥३९॥ [१९०] ३९ ए. इसी प्रकार निवृतरूप की प्राप्ति। निवृताव्याकृत रूप की प्राप्ति केवल सहज होती है। यह रूप निवृताव्याकृत चित्त से उत्थापित काय-वाग्-विज्ञप्ति रूप है । यह विज्ञप्ति यदि अधिमात्र चित्त से उत्थापित होती है तो इस विज्ञप्ति-चित्त के समान अविज्ञप्ति (४.७ ए) को उत्थापित नहीं करती : अतः यह दुर्बल है। अतः उसकी सहज प्राप्ति होती है, पूर्वज और पश्चात् कालज नहीं। क्या कुशल और अकुशल धर्मो की प्राप्ति के वैयध्विक स्वभाव में कुछ अवधारण हैं यथा अव्याकृत' धर्मों की प्राप्ति के लिये है ? रूपस्य नाग्रजा। एफ अवस्था वणित नहीं है: आर्य द्वारा लौकिक मार्ग से प्राप्त प्रतिसंख्यानिरोध की प्राप्ति । यह प्राप्ति, जैसा हम ६.४६ में देखेंगे, सास्रव और अनास्रव दोनों है । [व्या० १५२.३] २ अव्याकृताप्तिः सहजा [व्याख्या १५५.२५] 3 दुर्बलत्वात् : अनभिसंस्कारवत्वात्, क्योंकि यह यत्न का फल नहीं है । [व्या० १५२.८] ४ [अभिज्ञानिर्माणजिता ।।] व्याख्या : वैभाषिक-यया विश्वकर्मा को शैल्पस्थानिकों की प्राप्ति पूर्व-पश्चात् सहज होती है : स्थविर अश्वजित् ऐर्यापथिकों से समन्वागत है। [व्या० १५२.१६] ' निवृतस्य च रूपस्य [च्या० १५२.१९] ५