पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/१६४

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१५० अभिधर्मकोश 15 हम इस लक्षण की परीक्षा करते हैं---जब शास्त्र का उपदेश है कि पृथग्जनत्व आर्यधर्मों का अलाभ है तो किन आर्यधर्मो का अलाभ इसको अभिप्नेत है ? दुःखे धर्मज्ञानक्षान्ति से आरम्भ कर सर्व अनास्रव मार्ग या आर्य मार्ग (६.२५) आर्यधर्म हैं। सर्वास्तिवादिन्-अविशेष वचन होने से शास्त्र का अभिप्राय इन सब धर्मों से है। सावधान ! यदि ऐसा है तो दुःखे धर्मज्ञानक्षान्ति के उत्पन्न होने पर भी वह पृथग्जन होगा यदि परिशिष्ट आर्यधर्मों का अलाभ हो। [१९२] सर्वास्तिवादिन -शास्त्र उस अप्राप्ति का उल्लेख करता है जो लाभ के विना है : यद्यपि आपके पुद्गल को अन्य आर्य धर्मों का लाभ नहीं है तथापि वह पृथग्जन नहीं है क्योंकि इन अन्य धर्मों का अलाभ क्षान्तिलाभ सहमत है । यह प्रत्यक्ष हैं क्योंकि अन्यथा बुद्ध भगवत् का श्रावक प्रत्येकबुद्ध (६.२३) सन्तानिक आर्यधर्मो से असमन्वागम होने के कारण वह अनार्य होंगे बहुत अच्छा । किन्तु तब शास्त्र में 'एव' शब्द पठित होना चाहिये और उसे “पृथग्जनत्व आर्यधर्मों का अलाभ ही है (अलाभ एव)" ऐसा कहना चाहिये अलाभ" नहीं। सर्वास्तिवादिन -शास्त्र सुष्ठु कहता है क्योंकि एकपद (निरुक्त, २, २) भी अवधारणार्थ (अवधारणानि) होते हैं और 'एव' शब्द की आवश्यकता नहीं है : अब्भक्ष का अर्थ है जो केवल जल खाता है, वायुभक्ष, "जो वायु का ही भक्षण करता है।" २. एक दूसरे मत के अनुसार पृथग्जनत्व दर्शनमार्ग को प्रथम अवस्था का, दुःखे धर्मज्ञान- क्षान्ति और उसके सहभू धर्मों का (६.२५), अलाभ है । आक्षेप-इस पक्ष में, १६ वे क्षण में (मार्गेऽन्वयज्ञान) आर्य पथग्जन होगा, आर्य नहीं : क्योंकि इस क्षण में पूर्व क्षान्ति का त्याग होता है। ---इस त्याग से अनार्यत्व का प्रसंग नहीं होता क्योंकि क्षान्ति का अलाभ जो पृथग्जनत्व है प्रथम अवस्था में अत्यन्त हत होता है । आक्षेप-यह क्षान्ति त्रिगोत्र है-श्रावक-प्रत्येकवुद्ध-बुद्धगोत्र की है (६.२३) । पृथ- ग्जनत्व का आपका लक्षण इन तीन गोत्रों में से किसके अलाभ का उल्लेख करता है ? हमको तीनों प्रकार की क्षान्ति अभिप्रेत है ! सावधान ! इसमें भी वही दोष है । शान्ति के त्रिगोत्र के अलाभ से बुद्ध पृथग्जन होंगे। [१९३] इसका भी वही परिहार है । हम उस क्षान्ति के अलाभ का उल्लेख करते हैं जो लाभ के बिना है. पूर्ववत् प्रपंच यावत् यथा 'अन्भक्ष', 'वायुभक्ष' । अतः "सावधान । यदि ऐसा है तो दुःखे शान्ति का लाभी पुद्गल पृथग्जन होगा.. इस दोप.के परिहार के लिये जो यत्न है वह व्यर्थ है । सौत्रान्तिकों का व्याख्यान सुष्ठु है । उनके २ विभाषा के द्वितीय आचार्य । कथावत्यु, ४.४ से तुलना फीजिये।