पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/१६५

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द्वितीय कोशस्यान : चित्त-विप्रयुक्त १५१ अनुसार पृथजनत्व वह सन्तति है जिसमें आर्यधर्म अनुत्पन्न हैं (अनुत्पन्नार्यधा सन्ततिः) [व्या० १५४.२८] । अप्राप्ति का कैसे विगम होता है ? ४० सी-डी. इतकी विहानि प्राप्ति और भूमिसंचार से होती है।' यया (१) आर्य मार्ग के लाभ से और (२) भूमिसंचार से (३) पृथग्जनत्व जो आर्य- मार्ग का अलाम है विहीन होता है । अन्य धर्मों की अप्राप्ति की योजना भी इसी प्रकार करनी चाहिये। [१९४] आक्षेप --अप्राप्ति विहीन होती है (विहीयते) (१) जव अप्राप्ति---अप्राप्ति का उत्ताद होता है. अर्थात जव भूमिसंचार से पृथग्जनत्य की प्राप्ति की विहानि होती है; (२) जब अप्राप्ति की प्राप्ति का छेद होता है अर्थात् जव आर्यमार्ग के लाम से पृथग्जनत्व का छेद होता है। क्या कहने का यह अभिप्राय है कि प्राप्ति और अप्राप्ति की प्राप्ति होती है तथा प्राप्ति और अप्राप्ति की अप्राप्ति होती है । हाँ :प्राप्ति और अप्राप्ति की प्राप्ति और अप्राप्ति होती है । इन्हें 'अनुप्राप्ति', 'मनु-अप्राप्ति कहते हैं । अतः दो प्राप्ति हैं : मूल प्राप्ति और अनुप्राप्ति या प्राप्ति-प्राप्ति । क्या इस वाद में प्राप्तियों का अनवस्या प्रसंग नहीं होता ? नहीं, क्योंकि परस्पर समन्वागम होता है । प्राप्ति-प्राप्ति (= अनुप्राप्ति) के योग से प्राप्ति से समन्वागम होता है और प्राप्ति के योग से प्राप्ति-प्राप्ति से समन्वागम होता है ।- हम इसका व्याख्यान करते हैं । जब एक सन्तति में एक धर्मविशेप का उत्पाद होता है तो तीन 3 १ सा प्राप्त्या] भूमिसंचाराच् च] विहीयते ॥ [व्या० १५५.१२] २ अप्राप्ति या अलाम के धातु की व्यवस्था उपपत्ति के आश्रयवश होती है (२.४० ए)। अतः काभाववर सत्व का पृथग्जनत्व (जो अप्राप्ति है, २.४० बी-सी) कामावचर होता है। अत: यह नहीं कह सकते कि आर्यमार्ग के लाभ से यह सत्व अधातुक पृथग्जनत्व का त्याग फरता है।-आर्यमार्ग के लाभ से सर्व पृथानत्व, चाहे जिस धातु का क्यों न हो, सदा असभव हो जाता है। अतः यह कह सकते हैं कि यह भाव (कामावचरादि) अपने आकार में विहीन होता है यद्यपि सत्व को एक ही प्रकार के पृथग्जनत्व की प्राप्ति होती है। त्याग के दो आकार हैं-विहानि और प्रहाण। इनमें विशेष है। एक पृथग्जन कामवातु से विरक्त हो प्रयम ध्यान में संचार करता है : उसका कामावर पृथाजनत्व विहीन होता है किन्तु वह इससे आर्य नहीं होता। क्योंकि प्रयम व्यानभूमिक अन्य पृवग्जनत्व का प्रादुर्भाव होता है । बन्य भूनियों के लिये अर्यात् अधर से ऊर्च और ऊर्ध्व से अवर भूमियों में संचार के लिये इसी प्रकार योजना करनी चाहिये। कामावचर श्रुत-चिन्तामय कुशल धमों के प्राप्ति-लाम से अप्राप्ति विहीन होती है। उपपत्ति लाभिक कुशल घों (२.७१ बो) की प्राप्ति से समुच्छिन्नकुशल की अप्राप्ति विहीन होती है ।जब कोई सत्व कानवातु से च्युत होनियम ध्यान में उपपन्न होता है तब वह प्रथम ध्यानभूमिक धर्मों को अप्राप्ति से विहीन होता है.. इस वाद से कठिन प्रश्न समु- स्थापित होते हैं जिनकी परीक्षा संक्षेप से व्याख्या में की गई है। ध्या० १५५. १९]