पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/१७१

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द्वितीय कोशस्थान : चित्त-विप्रयुक्त १५७ ४२ बी. अन्त्य ध्यान की। इस समापत्ति के अभ्यास के लिये योगी को चतुर्थ ध्यान में समापन्न होना चाहिये। किस उद्देश्य से बह उसका अभ्यास करता है ? ४२ वी. मोक्ष की इच्छा से । योगी की यह मिश्या कल्पना होती है कि आसंज्ञिक जो सहस्र कल्प की असंज्ञा है और जो असंज्ञि-समापत्ति का फल है यथार्थ मोक्ष है। आसंज्ञिक विपाक है । अतः यह अवश्य अव्याकृत है । असंजि-समापत्ति-- ४२ सी. कुशला है । इसका विपाक असंज्ञिदेव का पंचस्कन्ध है जो, जैसा कि हम जानते है, उपपत्तिकाल और च्युतकाल में संज्ञी होते हैं। विपाक की से वह किस प्रकार का है ? ४२ सी. केवल उपपद्यवेदनीय है । यह 'दृष्ट-धर्म-वेदनीय', 'अपर-पर्याय-वेदनीय' नहीं है, यह 'अनियत-वेदनीय' (४.५० भी नहीं है । निस्सन्देह योगी इस समापत्ति का लाभ कर इस समापत्ति से परिहीण (परिहा) हो सकता है किन्तु वैभाषिकों के अनुसार वह पुनः उसका उत्पादन कर असंज्ञि सत्वों में उपपन्न होता है। इसका यह अर्थ है कि जो योगी इस समापत्ति का लाभी होता है वह अवश्य 'नियाम' (६.२६ ए) में अवक्रान्ति नहीं करता। [२०२] केवल पृथग्जन इस समापत्ति का अभ्यास करते है। ४२ डी. आर्य नहीं । यह इस समापत्ति को विनिपात-स्थान, अपाय-स्थान (अर्थात् अपाय-स्थान या गिरितट विनिपात स्थान) देखते हैं और उसमें समापन्न होने का यत्न नहीं करते । इसके विपर्यय पृथग्जन आसंज्ञिक को यथार्थ मोक्ष मानते हैं । उसके प्रति उनकी निःसरण संज्ञा मोक्षसंज्ञा होती है । अतः वह मोक्षोपनायिका समापत्ति में समापन्न होते हैं। किन्तु आर्य जानते हैं कि सास्त्रब यथार्थ मोक्ष नहीं हो सकता । अतः वह इस समापत्ति की भावना नहीं करते । जब आर्य चतुर्थ ध्यान में प्रवेश करते हैं तो क्या वह अतीत और अनागत उस समापत्ति की प्राप्ति का प्रतिलाभ करते हैं यथा वह चतुर्थ ध्यान के लाभ से अतीत और अनागत चतुर्थ ध्यान की प्राप्ति का प्रतिलाभ करते हैं। ५ नियामावक्रान्ति से आर्य अपायाति, आसंज्ञिक, महाब्रह्मोपपत्ति, कौरवोपपत्ति, अष्टंभव के अप्रतिसंख्यानिरोध का प्रतिलान करता है । असंज्ञि-समापति से परिहाणि नहीं होती, विभाषा, १५२, पृ०७७३, कालम ३। १ जो कोई चतुर्थ ध्यान में प्रवेश करता है वह उन सब चतुर्य ध्यानों की प्राप्ति का सकृत् लाभ करता है जिनकी उसने अनादिमान् संसार में भावना को है या जिनकी वह भविष्य में भावना करेगा।