पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/१७५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

द्वितीय कोशस्थान : चित्त-विप्रयुक्त १६१ इस पक्ष में बोधिसत्व व्युत्यानाशय होता है (व्युत्यानाशयः स्यात् [व्या० १६३.१]२) किन्तु बोधिसत्व व्युत्यानाशय नहीं होता । सत्य ही वह अव्युत्यानाशय है किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि एक सास्रव-चित्त के सम्मुखी- करण के लिये वह अनास्रव मार्ग का व्युत्थान नहीं करता। इस विकल्प में वह कैसे अपने आशय का व्युत्थान नहीं करेगा? उसका यह प्रणिधान है (मध्यमागम, ५६, ६) कि “मैं इस उत्कुटुकासन का परित्याग न करूंगा जब तक सर्व क्लेश के क्षय का मैं लाभ न करूँ।"-किन्तु वह इस आशय का उल्लंघन [२०७]नहीं करता क्योंकि एक ही आसन में (६.२४ ए-बी) वह अपने उद्देश्य का सम्मुखी- भाव करता है। ' यद्यपि असंशि-समापत्ति और निरोध-समापत्ति में बहुप्रकार के विशेष हैं तथापि इनमें यह साम्य है : ४४ सी. किन्तु यह दो समापत्ति काम और रूपाश्रय में होती हैं। इसका प्रतिषेध करना कि असंज्ञि-समापत्ति का उत्पाद रूपधातुमें होता है मूलशास्त्र का विरोध करना है । "एक रूपभव है जो पंचस्कन्धक नहीं है अर्थात् (१) रूपावचर संज्ञि 3 २ व्युत्यानाशय [व्या १६३.१] = व्युत्यानाभिप्राय “ऐसा अभिप्राय रखना जिसका व्युत्थान, त्याग हो सके।" एक दूसरा अर्थ : आशय कुशल-कुशलमूल । अतः "ऐसे मुशलमूलों का होना जिनका व्यत्यान, समुच्छेद हो सके ।" किन्तु बोधिसत्व के कुशलसूल ऐसे होते हैं कि यदि एक वार उनका संमुखीभाव मारंभ होता है तो सम्यक्संबोधि की प्राप्ति के पूर्व उनका व्युत्थान नहीं होता । 'व्युत्थान' का अर्थ 'समापत्ति से उठना भी है (संयुत्त, ३.२६५ इत्यादि) ३ विभाषा, १६, १६ : "सव आसन शुभ हैं । बोधिसत्व उत्कुटुकासन का क्यों ग्रहण करते हैं?" शुभान् चाझ में इतना अधिक है : “प्रथमवाद सुष्ट है क्योंकि यह हमारा सिद्धांत है।" २ कामरूपाश्रये तूभे [व्या १६३.१४ ] विभाषा, १५२, २-तीन मत : केवल कामयातु में, तीन अवर ध्यानों में भी, चतुर्थ ध्यान में भी। विभाषा के अनुसार निरोव-समापत्ति सात अहोरात्र से अधिक नहीं रह सकती। ३ ज्ञानप्रस्यान, १९, १७ में चतुर्विध प्रश्न है : दया ऐसा रूपभव है जो पंचस्कन्धक नहीं है ? क्या ऐता भव है जिसमें पंचकन्य हों और वह रूपधातु के न हों ? क्या ऐता रूपभव है जो पंचस्कन्वक है ? क्या ऐसा भव है जो रूमभव नहीं है और जो पंचस्कन्यक नहीं है ? ४ ज्ञानप्रस्यान और कोश में 'स्कन्य' शब्द का प्रयोग नहीं है किन्तु एक पर्यायवाची शब्द का व्यवहार है। व्याख्या की हस्तलिखित पोथियों में इस पर्याय के व्ययकार और व्यवहार यह दोनों रूप पाये जाते हैं। शुआन्-चाज्ञ का चीनी अनुवाद हिंग' है जिसके लिये संस्कृत शब्द संस्कार, विहरण आदि है । परमार्य का अनुवाद 'पान' है जो संस्कृत में नीति, नय है। पालि के अनुसार 'व्यवकार' पाठ निश्चित मालूम पड़ता है । ए. पालि-बोजार-खन्ध (चाइल्डर्स); विभंग, १३७ : सञ्जाभवो असञ्चाभवो नव- सानासाभवो एकावोकारभवो चतुवोकारभवो पंचवोकारभयो; यमक, फयावत्यु, अनुवाद, पृ० ३८ के अनुसार : कयावत्य, ३.११ : क्या असंशिसत्व के भव में एक ।