पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/१७६

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जामधनकाशा [२०८], देवों का भव जो असंज्ञि-समापत्ति या निरोध-समापत्ति में समापन्न होते हैं; (२) रूपावचर असंज्ञि देवों का भव जिन्होंने आसंशिक का प्रतिलाभ किया है।" इस वचन से यह सिद्ध होता है कि कामावचर और रूपावचर सत्व इन दो समापत्तियों की भावना करते हैं। दो समापत्तियों में यह विशेष सदा होता है। ४४ डी. निरोव-समापत्ति प्रथम मनुष्यों में । जिस आश्रय ने असंज्ञि-समापत्ति का कभी उत्पाद नहीं किया है वह इस समापत्ति को काम धातु या रूपधातु में उत्पन्न कर सकता है । किन्तु निरोध-समापत्ति के प्रथम उत्पाद के लिये इस आश्रय को अवश्य मनुष्य होना चाहिये। एक मनुष्य, एक आर्य जिसने इस समापत्ति का उत्पाद किया है प्राप्ति-त्याग से वहाँ से परिहीण हो सकता है । यह रूपधातु में पश्चात् उत्पन्न है और वहाँ पुनः इस समापत्ति का उत्पाद कर सकता है। किन्तु प्रश्न है कि क्या निर्वाणसदृश निरोध-समापत्ति से परिहाणि होती है। वैभाषिक कहते हैं- हाँ, परिहाणि का निषेध करना उदायिसूत्र का विरोध करना है "आयुष्मन् ! एक भिक्षु शील-सम्पन्न, समाधि-सम्पन, और प्रज्ञा-सम्पन्न होता है । वह संज्ञा- 'सकता की संज्ञा वोकार होता है या पांच वोकार। (बुद्धघोस का निरूपण : विविधन विसुं विसुं करीयति) । वी. व्याख्या-काश्यय तथागत की स्कंधों के लिये संज्ञा व्यवकार है-व्यवकार (विशेष- णावकार) का अर्थ पाणिनि, ५.२.१२७ के अनुसार सव्यचकार है। अतः-'जो अपनी अनित्यता से, अन्यथाभाव से, विसंवादिनी है।' यह लक्षण इस श्लोक के अनुसार स्कन्धों में घटित होता है : “रूप फेनपिंडोपम है..." व्या १६३. २७-३१] व्यवकार के स्थान में वहाँ व्यवचार पाठ है (संयुत्त, ३.१४२) ।

सी. विभाषा, १९२, ४-पूर्व तथागत सम्यक्सम्बुद्ध स्कन्धों को व्यवकार

देते हैं किन्तु तथागत सम्यक्संबुद्ध शाक्यमुनि व्यवकारों को स्कंध को संज्ञा देते हैं । पूर्व तथा- गत ५ व्यवकारों का वर्णन करते हैं। शाक्यमुनि ५ उपादानस्कन्धों का वर्णन करते हैं । यहाँ अभिधर्म में 'सपंचव्यवकार' भव का उल्लेख यह दिखाने के लिये है कि ५ स्कन्ध जिनका वर्णन शाक्यमुनि करते हैं पूर्वबुद्धों के ५ व्यवकार हैं। पूर्वबुद्ध व्यवकार आख्या काक्यों प्रयोग करते हैं जब कि प्रत्युत्पन्न बुद्ध स्कन्ध मारण्या का प्रयोग करते हैं ? क्योंकिबुद्ध जानता है कि विनेयजन को क्या उपयुक्त है ...। व्यवहार शब्द क्यों है ? प्रवृत्तिका (संचार ?) : पूर्वोत्पन्न स्कन्ध पश्चादुत्पन्न स्कन्धों के कारण वृद्धि को प्राप्त होते हैं अथवा पश्च दुत्पन्न स्कन्ध पूर्वस्कन्धों के कारण वृद्धि को प्राप्त होते हैं. यह सत्व जो स्वभाव से संज्ञी हैं विसभागचित्त में स्थित होते हैं जब वह इन दो समापतियों में से किसी एक में समापन्न हो असंक्षि होते हैं । उदायिसूत्र, ८.१४०, सिद्धि, ४०७ । २ निरोधः प्रथमं नृयु ॥ इस सूत्र का उपदेश शारिपुत्र ने किया है । इस सूत्र का नाम उदायिसूत्र है क्योंकि शारिपुत्र का विवंधक उदायि है । संस्कृत रूपान्तर पालि पाठ के अत्यंत समीप है। मध्यमागम ५, ४ और अंगुत्तर, ३.१९२ । श्रावस्त्यां निदानम् । तत्रायुष्मान् शारिपुत्रो भिक्षूनामन्त्रयते स्म । इहायुष्मन्तो भिक्षुः ? १