पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/१७७

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द्वितीय कोशस्यान : चित्त-विप्रयुक्त [२०९] वेदितनिरोध-समापत्ति में अभीक्ष्ण समापन्न होता है और उससे व्युत्थान करता है। इसका स्थान है । यदि दृष्टधर्म में वह पूर्वमेव आज्ञा तक नहीं पहुँचता और मरणकाल में भी नहीं तो काय के भेद के अनन्तर कक्डोकारभक्ष देवों का अतिक्रमण कर वह किसी दिव्य मनोमय काय में उपपन्न होता है। वहाँ उपपन्न हो वह संज्ञावेदितनिरोध-समापत्ति में अभीक्षण समापन होता है और उससे व्युत्यान करता है । इसका स्थान है ।" यह सूत्र वस्तुतः प्रदर्शित करता है कि निरोध-समापत्ति से परिहाणि होती है। एक ओर जिस मनोमय काय का वर्णन शारिपुत्र करते हैं उसे बुद्ध रूपावचर' बताते हैं । दूसरी ओर निरोध-समापत्ति भावाग्निकी है जो आरूप्यधातु का सर्वोच्च स्थान है । जो भिक्षु इसका लाभी (तल्लाभिन्) होता है उसकी उपपत्ति रूपधातु में नहीं होती यदि उसकी वहाँ से परिहाणि नहीं होती, यदि वह उसका त्याग नहीं करता । [२१०] एक दूसरे निकाय' के अनुसार निरोध-समापत्ति चतुर्थध्यानभूमिक भी है और इसकी परिहाणि नहीं होती। शीलसम्पन्नश्च भवति समाधिसम्पन्नश्च प्रज्ञासम्पन्नश्च । सोऽभोदणं संज्ञाबेदितनिरोध समापद्यते च युत्तिष्ठते च । अस्ति चैतत् स्थानम् इति यथाभूतं प्रजानाति । स नेहव दृष्ट एव धर्मे प्रतिपत्त्यैव आज्ञामारागपति नापि मरणसमये भेदाच्च कायस्यातिक्रम्य देवान् कद- डोकारभक्षान् अन्यतमस्निन् दिव्ये मनोमये काय उपपद्यते । स तत्रोपपन्नो.... [च्या १६४.१२] व्याख्या : प्रतिपत्त्यैव पूर्वमेव [व्या० १५६.२८ में प्रतिपद्येव पाठ है ।] इस सूत्र का विचार ८.३ सो. में किया गया है (आरूप्यधातुं में रूप-सद्भाव का वाद)- दोध, १.१९५ से तुलना कोजिये । १ आज्ञामारागयति, [व्या १६४,१६] यथा महावस्तु, ३.५३.९ में है ।-परमार्थ : "वह आज्ञाताबीन्द्रिय का लाभ नहीं करता।" शुभआन्-चाडः "वह अर्हत्व के लाभ के लिये यथोचित प्रयोग नहीं करता.. २ उसे मनोमय कहते है क्योंकि शुक्र-शोणित के बिना उसका प्रादुर्भाव होता है किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि वह संज्ञानय काय है (दीघ, १. १९५) और भारूण्यावचर है जंता उदायि का मत था। महावस्तु के बोधिसत्व के 'मनोमय काय' पर 'ओपिनियन्स ऑन हिस्ट्रो माफ़ दिखाग्मा' 'प० २५८ देखिये। 3 जापानी संपादक को टिप्पणी : १ मनोमय काय के देव जिनका सूत्र में उल्लेख है (ए) सर्वास्तिवादिन के लिये (यही मत दोघ, १.१९५ में है) रूपवातु के हैं; (बी) सामा- न्तिक के लिये रूपया और आरूप्यधातु के हैं, (सी) उदाधिन के लिये असंझिसत्व है। २. सर्वास्तिवादिन के अनुसार निरोवतनापत्ति से परिहाणि, सौत्रान्तिक और उदायिन् के अनुसार परिहाणि नहीं। किन्तु व्याख्या के अनुसार सौत्रान्तिक सनापत्ति-परिहाणि मानते हैं। यह सदा इसका प्रति- घेध करते हैं कि आर्य की आर्यमार्ग से परिहारण होती है (यह सर्वास्तिवादिन के बिल्ख है)। अतः व्याख्या को कठिनाइयों का समाधान करना पड़ता है। [च्या १६६.२] अनुसार महासोधिक आदि । 5 फू-कुआंग के