पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/१७८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अभिवर्मकोश 1 यह मत अयुक्त है । यह समापत्ति चतुर्थध्यानभूमिक नहीं है क्योंकि सूत्र की शिक्षा है कि योगी ९ अनुपूर्व समापत्ति का लाभ करता है । अतः व्युत्क्रान्तक (८.१८ सी) नामक समापत्ति का जिसमें योगी समापत्ति की विविध अवस्थाओं का उल्लंघन करता है कैसे व्याख्यान करें ? अनुपूर्व समापत्ति के उत्पाद का नियम प्राथमकल्पिक के प्रति है । जिसने वशित्व का लाभ किया है वह इच्छानुसार समापत्तियों का उल्लंघन करता है। अतः दो समापत्तियों में विशेष है। १. भूमितः । प्रथम चतुर्थध्यानभूमिक है, द्वितीय भावानिकी है (नवसंज्ञानासंज्ञायतन); २. प्रयोगतः । प्रथम मिथ्यारूप से आसंज्ञिक को मोक्ष समझ कर निःसरण संज्ञा से प्रवृत्त होता है, द्वितीय शान्तविहार की संज्ञा से प्रवृत्त होता है; ३. सन्तानतः। प्रथम' का उत्पाद पृथग्जन में होता है, द्वितीय का आर्य में; ४. विपाकस्वभावतः । प्रथम असंज्ञि-सत्वों में उपपत्ति का उत्पादन करता है, द्वितीय भवाग्रोपपत्ति का उत्पाद करता है (कथावत्थु, १५.१०); ५. विपाकप्रकारतः । प्रथम का विपाक नियतवेदनीय है, उपपद्यवेदनीय है। द्वितीय का विपाक अनागामी के लिये नियतवेदनीय है, अर्हत् के लिये अनियतवेदनीय है । यदि विपाक होता है तो यह उपपद्यवेदनीय या अपरपर्यायवेदनीय होता है। [२११] ६. प्रथमोत्पादनतः । प्रथम का उत्पाद दो धातुओं में से किसी में होता है, द्वितीय का केवल मनुष्यों में। इन दो समापत्तियों का साधर्म्य इसमें है कि दोनों का स्वभाव सर्व चित्त-चैत्त का निरोध है (चित्तचैत्तानां निरोधः) । प्रथम को 'असंशि-समापत्ति' और दूसरे को 'संज्ञावेदितनिरोध- समापत्ति' क्यों कहते हैं ? क्योंकि प्रथम समापत्ति का प्रयोग केवल संज्ञा के प्रतिकूल है और द्वितीय का प्रयोग केवल संज्ञा और वेदना के प्रतिकूल है 1 परचित्तज्ञानवचनवत् । यथा परचित्तज्ञान (७.५ बी) दूसरे के चैत्तों को आलम्बन बनाता है, किन्तु इसका नाम संक्षिप्त है क्योंकि इसका प्रयोग केवल पर- चित्त को लक्ष्य करता है। र दीर्घ, १७, ११, दीघ, ३.२६६; महाव्युत्पत्ति, ६८, ७ : नवानपूर्वसमापत्तयः [व्या० १६६.९] : चार ध्यान, चार आरूप्य और निरोधसमापत्ति । । प्रायमकल्पिकः = आदितः समापत्तिविधायकः [व्या १६६.१०] १ असंति-समापत्ति का प्रयोग इस प्रकार है : संज्ञा रोग है, संज्ञा शल्य है, संज्ञा गण्ड है। संज्ञानिरोध शान्त है, प्रणीत है।" २ प्रयोग में यह प्रणिधान होता है : "मैं परचित्त को जानूंगा।"