पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/१७९

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द्वितीय कोशस्थान : चित्त-विप्रयुक्त १६५ दोनों समापत्तियों में चित्त बहुकाल के लिये निरुद्ध होता है । समापत्ति-व्युत्थान के समय बहुकालनिरुद्ध चित्त से एक अन्य चित्त का कैसे उत्पाद होता है ? वैभाषिक मत से कोई कठिनाई नहीं है : अतीत धर्मों का अस्तित्व है (५.२५) । अतः समापत्ति से पूर्व का चित्त, समापत्ति-चित्त, समापत्ति से पश्चात् के चित्त का, व्युत्थान-चित्त का समनन्तरप्रत्यय (२.६२) होता है (विभाषा , १५२, १०) । [२१२] सौत्रान्तिकों की यह युक्ति है । जब एक सत्व आल्प्यधातु में उपपन्न होता है तब रूप एक दीर्घकाल के लिये (३.८१ वी) समुच्छिन्न होता है : यदि पश्चात् यह सत्व पुनः कामधातु या रूपधातु में उपपन्न होता है तो इसका नवीन रूप वहुकाल-निरुद्ध रूप-सन्तति से संजात नहीं होता किन्तु चित्त से ही होता है । यथा व्युत्थानचित्त का हेतु समापत्ति से पूर्व का चित्त नहीं होताः यह सेन्द्रियकाय से उत्पन्न होता है । इसीलिये पूर्वाचार्य कहते हैं कि "दो धर्म अन्योन्यबीजक है : यह दो धर्म चित्त और सेन्द्रियकाय है।" परिपृच्छाशास्त्र में स्थविर वसुमित्र कहते हैं : जो निरोध-समापत्ति को अचित्तक मानते हैं उन्हीं के लिय यह दोप है कि किस प्रकार समापत्ति के अनन्तर चित्त की उत्पत्ति होती है। किन्तु मेरा मत है कि यह समापत्ति एक सूक्ष्म चित्त से सहगत होती है। मेरे लिये इसमें दोप नहीं . . भदन्त घोपक इस मत को दुषित मानते हैं। वास्तव में यदि कोई विज्ञान इस समापत्ति में होता है तो विज्ञान, इन्द्रिय और विषय इस त्रिक के सन्निपात से वहाँ संस्पर्श होना चाहिये; संस्पर्श- वश वहाँ वेदना और संना (३.३० वी) होगी । यथा भगवत् का उपदेश है : “मन-इन्द्रिय और धर्मों के कारण मनोविज्ञान की उत्पत्ति होती है; त्रिकसन्निपात, संस्पर्श; वेदना, संज्ञा, चेतना 1 ४ ३ सिद्धांत-भेद है ! वैभाषिकादि के मत से यह २ सम्मपति और आसंज्ञिक अचित्तक हैं (अचि- स्तकान्येव...व्या १६७.५]); स्थविर वसुमित्रादि के अनुसार वह अपरिस्फुट मनो- विज्ञानवश सचित्तक हैं। योगाचार के अनुसार आलयविज्ञानवश वह सचित्तक हैं। (व्याख्या) यह प्रश्न सौत्रान्तिकों का है। उनके अनुसार समनन्तर बहुकालनिरुद्ध चित्त फा समान रूप से अभाव है : सदा समनन्तरनिरुद्ध चित्त से चित्तान्तर उत्पन्न होता है : तुला- दण्डोनामावनामवत् च्या० १६७.१३] (बोधिचर्यावतार, ४८३. ३ में शालिस्तम्ब से तुलना कीजिये)। १ आचार्य शास्त्र के नाम का उल्लेख करते हैं क्योंकि वसुमित्र ने (इनके नाम के पूर्व कभी स्थविर और कभी भदन्त आता है) पंचवस्तुक आदि अन्य शास्त्रों की रचना की है ब्या १६७.२२] धर्मत्रात को लिखी पंचवस्तुक की एक टीका है, नैञ्जियो १२८३, जापानी संपादक सूचित करते हैं कि यह विभापा के वसुमित्र नहीं हैं किन्तु कोई सौत्रान्तिक है ।-(पू- कुआंग २६, १० देखिये) । सिद्धि, २११--सीत्रान्तिक निकायों पर। २. विभाषा, २५२, ४ : "दान्तिक और विभज्यवादिन का मत है कि निरोध-समापत्ति में एक सूक्ष्म चित्त का उच्छेद नहीं होता। वह कहते हैं कि "कोई ऐते सत्व नहीं है जो अचित्तक और अरूपक दोनों हों; कोई ऐसा समाहित नहीं है जो अचित्तक हो। यदि समाहित अचित्तक होता तो जीवितेन्द्रिय का समुच्छेद होता । उत्तको कहते कि नहीं है : समाधिस्थ है किन्तु मत है।"