पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/१८

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प्रथम कोशस्थान धातुनिर्देश यः सर्वथा सर्वहतान्धकारः संसारकाज्जगदुज्जहार । नमस्कृत्य यथार्यशास्त्रे शास्त्रं प्रवक्ष्याम्यभिधर्मकोशम् ॥१॥ तस्मै [१] १. जिन्होंने सर्व अन्धकार का सर्वथा विनाश किया है, जिन्होंने संसार-पंक से जगत् का उद्धार किया है, उन यथार्य शास्ता को मैं अभिधर्मकोश नामक शास्त्र के प्रवचन के पूर्व, नमस्कार करता हूँ।' शास्त्र-प्रणयन की इच्छा से अपने शास्ता के माहात्म्य को विनापित करने के लिए आचार्य गुणाख्यान-पूर्वक उनके प्रति नमस्कारारम्भ करते हैं । "उन्होंने सर्व अन्धकार का विनाश किया है" अर्थात उनके द्वारा या उनका, सर्व अयों के विषय में, सर्व ज्ञेयों के विषय में, अन्धकार हत हुआ है। "अन्धकार" अर्थात् अज्ञान, क्योंकि अज्ञान भूतार्थ-दर्शन में प्रतिबन्ध है। "सर्वथा" अर्थात् इस प्रकार जिसमें उसका पुनरनुत्पत्तिधर्मत्य हो जाए। बुद्ध भगवत् २ को अधिकृत कर “यः" शब्द प्रयुक्त है, [२] क्योंकि उन्होंने ही अज्ञान-प्रतिपक्ष (५.६०) के लाभ से सर्व नजान का सर्वथा अत्यन्त विनाश किया है। १ यः सर्वया सर्वहतान्धकारः संसारकाज्जगदुज्जहार। तस्मै नमस्कृत्य पयार्यशास्त्र शास्त्रं प्रवक्ष्याम्यभिवर्मकोगम् ॥ व्याख्या १.१९] २ विनयविभाषाकार चार कोटि बताते हैं: (१) एक बुद्ध है जो भगवान् नहीं है अर्थात् प्रत्येका- बुद्ध । यह बुद्ध है क्योंकि यह स्वयंभू है अर्थात् इन्होंने स्वयं बोधि का लान किया है। यह भगवान् नहीं है क्योंकि इनका दानादि (दान-पारमिता मादि) (७.३४) संगार अपरिपूर्ण है। (२) एक भगवान् हैं जो बुद्ध नहीं हैं अर्थात् चरमविक बोधिनत्य । (३) एक वृद्ध और भगवान् दोनों ही हैं। (४) ऐसे भी पुद्गल (प्राणो) है जो न बुद्ध है और न भगवान् । [व्याख्या ३.१२] यह भी कह सकते हैं कि भावक बन है (मार्य- देव, पातक, २७०) क्योंकि वे बोधि का लाभ करते हैं (६.६७) ।