पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/१८०

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अभिवर्मकोश का सहोत्पाद होता है ।" अतः यदि यह स्वीकार किया जाय कि इस समापत्ति में विज्ञान [२१३] (चित्त) रहता है तो वेदना और संज्ञा का विरोध नहीं होगा। किन्तु इस समापत्ति को संज्ञा- वेदितनिरोध कहते हैं। बसुमित्र उत्तर देते है--सूत्र-वचन है कि "वेदनाप्रत्ययवश सृष्णा होती है" किन्तु यद्यपि अर्हत् वेदना का अनुभव करते हैं तथापि अहंत में तृष्णा नहीं उत्पन्न होती । उसी प्रकार यहाँ भी : सब संस्पर्श वेदनाप्रत्यय नहीं है। यह युक्ति कुछ सिद्ध नहीं करतो । वास्तव में सूत्र में यह विशेष है कि "अविद्यासंहित संस्पर्श से उत्पन्न वेदगा के कारण तृष्णा की उत्पत्ति होती है" (३.२७)' किन्तु सूत्र कहता है कि "संस्पर्श-वश वेदना उत्पन्न होती है।" वेदनोत्पत्ति में स्पर्श को विशेषित नहीं किया है । अतः वैभाषिक कहते हैं कि निरोधसमापत्ति में चित्त का निरोध होता है। वसुमित्र : यदि यह समापत्ति सर्वथा अचित्तिका है तो अचित्तिका का समापत्तित्व कैसे हैं ? उसे समापति कहते हैं क्योंकि वह महाभूतों का समतापादन करती है, चित्तोत्पत्ति- प्रातिकूल्य का समवस्थान करती है अथवा क्योंकि योगी चित्त-बल से वहां समागमन करते हैं (समागच्छन्ति, समापयन्ते) ! इस कारण ध्यानादि का भी समापत्तित्व होता है । क्या इन दो समापत्तियों का द्रव्यतः (स्वलक्षणतः) अवधारण करना चाहिये ! सर्वास्तिवादिन का उत्तर है- हां, क्योंकि यह चित्तोत्पत्ति में प्रतिबन्ध है (चित्तोत्पत्ति- प्रतिवन्धनात्) । व्या० १६८.७] [२१४] सौत्रान्तिक का उत्तर है कि नहीं। जिसे आप 'समापत्ति' कहते हैं यह यह नहीं है जो चित्तोत्पत्ति में प्रतिवन्य है किन्तु यह 'समापत्ति-चित्त' है, वह चित्त जो समापत्ति-अवस्या के पूर्व का है : यह चित्त चित्तान्तर के विरुद्ध है; इसके कारण कालान्तर के लिये अन्य चित्तों का .. 2 कीजिये ३ संयुक्तागम,२.८; संयुक्त, २०७२ और कोश, ३.३० यो में ग्रन्थों से तुलना संयुक्तागम, १२, १४, संयुत्ता ३.९६ महाभूतसमतापानम् [या १६८.१]--महाव्युत्पत्ति, ६८,९ में यह वाक्य आ गया है। विभाषा, १५४.१ : जो निरोधसमापत्ति में समापन्न होता है उसे अग्नि दग्ध नहीं कर सकती, जल उसे पिलन नहीं कर सकता, क्षुर उसे छिन्न नहीं कर सकता, कोई उसका पात नहीं कर सकता, (संजोय, खाण फोण्डन के वस्तु से तुलना कीजिये । इनका उल्लेख बिसुद्धि, १२.जे पोटी एस. १८९१, ११२ में है)। इस गुण से यह क्यों समन्वागत है ? सुमित्र कहते है : क्ष्योंकि इस समापत्ति को आघात नहीं पहुंच सकता अतः जो इस समा- पत्ति में समापन होता है यह आहत नहीं हो सकता। अन्यत्र : समापत्ति का अर्थ चित्त- समता का आपादन है । यहां गब चित्त हो नहीं है तो समापत्ति को कैसे घात हो सकती है? समापत्ति दो प्रकार की है : एक जो चित्त तमता का आपादन पारती है। दूसरी जो मह- भूत-समता का आपादन करती है। यद्यपि यह दो समापत्ति चित-समता का समुच्छद करती हैं श्योंकि यह चित्त का निरोध करती हैं तयापि यह महाभत-समता का आपादान करती हं विभाया. १५२, १० ७७५ भो।