पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/१८३

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आयु द्वितीय कोशस्थान : चित्त-विप्रयुक्त २. सौत्रान्तिक-में के अस्तित्व का प्रतिपध नहीं करता । मैं केवल इतना कहता हूँ कि आयु द्रव्य नहीं है। वैभापिक-अतः आयु नाम से प्रज्ञप्त धर्म क्या है ? [२१७] सौत्रान्तिक यह एक आवेध, सामर्थ्यविशेष है जिसे पूर्वजन्म का कर्म प्रति- सन्धि-क्षण में सत्व में आहित करता है । इस सामर्थ्यवशं एक नियत काल के लिये निकाय-सभाग (२.४१) के स्कन्ध-प्रवन्ध का अवस्थान होता है । यया वीज अंकुर में एक सामर्थ्य-विशेष आहित करता है जिससे पाककाल-पर्यन्त सस्थ-सन्तान की स्थिति होती है। यथा क्षिप्त शर में एक सामर्थ्य-विशेप आहित होता है जिसके कारण एक काल तक उसके सन्तान की अनुवृत्ति, उसकी स्थिति होती है। वैशेपिक मत है कि शर में वेगाख्य-संस्कार नामक गुणविशेप उत्पन्न होता है । इस गण के वल से पतन-पर्यन्त शर का विना प्रतिरोध के गमन होता है । ३ संस्कार का एकत्व है। दूसरी ओर शर के लिये प्रतिवन्धक का अभाव है : अतः शर की देशान्तर-प्राप्ति में शीघ्र-शीघ्रतर-शीघ्रतम ऐसा काल-भेद नहीं है; पुनः शर का पतन नहीं होता । क्या आप कहेंगे कि वाय संस्कार में प्रतिवन्धक है ? जो वायु प्रतिवन्धक है वह अविशेष है, यथा समीप में है वैसे ही दूर में है । या तो शर के अर्वाक् पतन का प्रसंग होगा अथवा शर का कभी पतन न होगा। वैभाषिकों का मत है कि आयु द्रव्यसत है (२) मरण कैसे होता है ? क्या केवल बायुःक्षय से मरण होता है ? प्रज्ञप्तिशास्त्र कहता है कि "ऐसा होता है कि एक सत्व आयुःक्षय से, विना पुण्यक्षय के, [२१८] मृत होता है । चार कोटि हैं १. आयुर्विपाक कर्म के क्षय से मरण; २. भोगविपाक' कर्म के क्षय से मरण; ३. उभयक्षय से (उभयक्षयात.) मरण; ४. विषम के अपरिहार से मरण, यया अत्यशन ।"

४ - ४ १ सस्यानां पाफकालावधयत् क्षिप्तेषु स्थितिकालावेघवच्च । [च्या १६५.५,७] २ वशेषिकदर्शन, ५,१,.१६एच० उइ, वैशेषिक फिलासफी, पृ० १६३--शर का वृष्टांत वैशेषिक के लिये महत्व नहीं रखता क्योंकि वह वेग को द्रव्य मानता है। अतः भाचार्य वैशेषिक- वाद का प्रतिव फरते है। 3 शीप्रतरतममाप्तिकालभेदानुपपत्तिः [च्या १६९.२०] शुआन्-चाड : "नायु एक द्रव्य है जो उग्न और विज्ञान का आधार है : यह वाद सुष्ट है।" जापानी संपादक की टिप्पणी : आचार्य का मत सर्वात्तिवादियों का है--किन्तु यह मानना पड़ेगा कि शुमान्-चाइ इन शब्दों को छोड़ देते हैं : "वनापिक पहते हैं". क्योंकि पंच- स्कन्धक में दसुबन्यु सौत्रान्तिकवाद को स्वीकार करते है। फर्मप्रज्ञप्तिशास्त्र, अध्याय ११ एम डी ओ ७२, फोलियो २४० वी० ५ कर्म के विविय फल पर ४. ८५ और आगे देखिए । 'भोग' पर योगसूम, २.१३