पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/१८४

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१७० अभिधर्मकोश आयु : संस्कार के उत्सर्ग (२.१०) से भी मरण है। जब आयु क्षीण होती है तब भोगविपाक कर्म के क्षय का मरण में सामर्थ्य नहीं होता और अन्योन्य । अतः तृतीय कोटि को इस प्रकार समझना चाहिये : "उभयक्षय के होने पर मरण"। (३) अकालमरण (३.८५ सी) ज्ञानप्रस्थान (१५, १२) कहता है : "क्या आयु के विषय में यह कहना चाहिये कि यह 'सन्तानवर्ती' है अथवा यह कि 'सकृत् उत्पन्न होकर यह अवस्थान करती है' (सकृदुत्पन्नं तिष्ठति) ?-कामधातु के जो सत्व (असंज्ञि-समापत्ति, निरोध-समापत्ति) दो समापत्तियों में से किसी एक में भी समापन्न नहीं हैं उनकी आयु प्रथम प्रकार की है । कामधातु के जो सत्व इन दो समापत्तियों में समापन्न हैं उनकी और रूपधातु तथा आरूप्यधातु के सत्वों की आयु द्वितीय प्रकार की है।" इस वचन' का क्या अर्थ है ? यदि आश्रय के उपघात से आयु का उपघात होता है तो यह आयु आश्रयसन्ततिप्रतिवद्ध है। यदि आश्रय का उपघात न होने से आयु की स्थिति उस काल तक होती है जिस काल के लिये उसका उत्पाद हुआ है तो कहते हैं कि सकृत् उत्पन्न हो आयु की स्थिति होती है। काश्मीर मत यह है कि प्रथम प्रकार की आयु सान्तराय है, द्वितीय प्रकार की निरन्तराय है । अतः अकालमरण होता है । ४ २ परमार्थ में नहीं है।। ऊपर पृष्ठ १२२ देखिये ।-विभाषा, २०, १५ । 3 वहिर्देशकों का यह मत है-काश्मीर मत भी यही है, शब्दमात्र भिन्न है । अथवा इनका यह मत है कि प्रथम प्रकार की आयु 'स्वसन्तत्युपनिबद्ध है किन्तु निरुद्ध हो सकती है। [ध्या १७०.९] विभाषा, १५१, पृ० ७७१ । कथावत्यु, १७.२ के अनुसार राजगिरिक और सिद्धित्यिक अर्हत् की अकाल मृत्यु का प्रति- पेध करते हैं (कोश, २.१०)-राहिल (लाइफ आफ बुद्ध, पृष्ठ १८९) और वैजी- लीफ, पृष्ठ २४४ के अनुसार प्राप्तिवादी अकाल मृत्यु का प्रतिषेध करते हैं- बोधिचर्या- वतार (२.५५) एक काल-मरण और शत अकाल मृत्यु मानता है। इनमें से प्रत्येक मृत्यु वात-पित्त-श्लेष्नत और तत्संनिपातकृत होती है। इस प्रकार ४०४ मृत्यु होती हैं। (१) समुच्छेदमरण, अर्हत् को मृत्यु, (२) खणिकमरण, अनित्यताभक्षित धर्मो का निर- न्तर अभाव और (३) सम्मुतिमरण, वृक्षादि के कारण मृत्य इन तीन के अतिरिक्त अभिधम्म में है (१) कालमरण (ए) पुण्यक्षय से (पुत्र), (वी) आयुक्षय से, (सी) उभय- क्षय से; (२) अकालमरण उपच्छेदक कर्मवश (उपच्छेदककम्मणा), यथा दूसीमार कालभू आदि, यथा पूर्वकृत कर्मविपाकवश वध (विसुद्धिमन्ग, ८. वारेन, पृ० २५२ अंगुत्तर को अट्ठकथा, पी. टी. एस. पृ० १११, नेतिप्पकरण, पृष्ठ २९; मिलिन्द, पृ० ३०१)-~-अभिवम्मसंगह, काम्पेण्डियम पृ० १४९ । जनमत, उमास्वाति, तत्वार्याधिगमसूत्र, २.५२ : द्विविधान्यायुसि. . .