पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/१८५

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द्वितीय कोशस्थान : चित्त-विप्रयुक्त १७१ [२१९] सूत्र में भी कहा है कि चार यात्मभाव-प्रतिलम्भ' हैं : वह आत्मभाव जिसका

मारण अपने से होता है, पर से नहीं, इत्यादि । चार कोटि हैं : १. भात्म-संचेतना:

कामघातु के कुछ सत्व यथा क्रीडा-प्रदूपिकदेव और मनः-प्रदूपिकदेव अपने हतिरेक या क्रोधातिरेक से स्वयं आत्मभाव का मारण करते हैं । बुद्धों को भी गिनाना चाहिये क्योंकि उनकी स्वयं मृत्यु होती है, वह स्वयं निर्वाण में प्रवेश करते हैं । २. पर-संचेतना: जरायुज और अण्डज । ३. आत्म-पर-संचेतना : प्रायेण कामधातु के सत्व । नारक, अन्तराभविक (३.१२) आदि का परिवर्जन करना चाहिये । ४. न आत्म-संचेतना और न पर-संचेतना : अन्तराभविक सत्व, रूपधातु और आरूप्यधातु के सव सत्व, कामधातु के सत्वों का एक भाग : नारक (३.८२), उत्तरकुरु के निवासी (३.७८ सी), दर्शनमार्गस्थ (६.२८), [२२०] मैत्रीभावनास्थ (८.२९), असंज्ञि-निरोध-समापत्तियों में समापन्न (२. ४२, कथा- वत्यु, १५.९), राजपि अर्थात् जिस चक्रवर्ती राजा ने प्रवज्या ली है, जिनदूत', जिनोद्दिष्टः २ ' अक्षरार्थ : आत्मभावप्रतिलभ्भ-मज्झिम, ३.५३ में दो प्रकार वर्णित हैं : सव्यापज्झ और अव्यापज्झ । २ दोघ, ३.२३१, अंगुत्तर, २.१५९ : अत्यावुसो अत्तभावपटिलाभो यस्मि अत्तभावपटिलाभे अत्तसंचेतना येव कमति नो परतंचेतना. ..कोश, ६.५६ देखिये-- व्याख्या : आत्म- संचेतना = आत्मना मारणम्, परसंचेतना = परेणमारणम् [व्या० १७०.१५] । ६ २५३, २५५, २६२ देखिये। 3 दीघ, १.१९, ३.३१-विभाषा, १९९, १५ । इसमें ऐकमत्य नहीं है कि यहाँ चातुर्महाराज और प्रयस्त्रिज्ञ अथवा कामघातु के अन्य प्रकार के देव इष्ट है। 'जिनदूत- यथा भगवत् ने आम्रपाली के पास एक शुक भेजा था । लिच्छवि योग्या कर रहे थे। उन्होंने उसे देखा और शरजाल से उसे ढक दिया। किन्तु जिनदूत जब तक दूतकृत्य संपादित नहीं करता तब तक उसका मारण नहीं हो सकता । व्या १७०.२०] जिनोद्दिष्ट = = इयन्तं कालमनेन जीवितव्यमिति य आदिष्टो भगवता । [च्या० १७०.२४ में जिनोद्दिष्ट के स्थान में जिनादिष्ट पाठ है। कदाचित् यह अर्थ करना चाहिये : "जिनको बुद्ध यह जानते हुए आदेश देते है कि यह इतने काल तक जीवित रहेंगे।" यश और जीवक पर एम० जे० प्रिजोलुस्की की जो टिप्पणियां हैं वह इस अर्थ को संभव बताती हैं। 'महावग्ग, १.७ में ६४ अत्यन्त दुल्ह है। यज्ञ का आक्रोश है “यह क्या भय है ! फिन्तु हम नहीं जानते कि किस भय का वह उल्लेख करता है । सर्वास्तिवाद विनय के समकक्ष परिच्छेद में यह स्पष्ट किया गया है : “तब यश नगर-द्वार को लांघ कर वाराणसी की नदी के समीप पहुंचा। उस समय भगदत् इस नदी के तट पर चंक्रमण कर रहे थे। जल को देख- कर यश पूर्ववत् चिल्लाया। इसको सुनकर वुद्ध ने कुमार से कहा : इस स्थान में भय का कोई कारण नहीं है । स्रोत को पार करो और आओ।" ( टोक. १७, ३, २६ ए)। "सुभद्र की गर्भवती स्त्री (दिव्यावदान, २६२-२७० से तुलना कीजिये) पुत्रप्रसव के पूर्व मर जाती है। उसका शरीर जलाया जाता है किन्तु शिशु नहीं जलता। बुद्ध जीवक से कहते कि जाओ और शिशु को प्रज्वलित अग्नि से निकाल लायो । जीवक आदेश को मानते हैं और बिना किसी उपघात के वापिस आते हैं (१७.१, ६ ए)।" .