पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/१८८

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१७४ अभिधर्मकोश किया है : किन्तु स्थित्यन्यथात्व 'जरा' का पर्याय है। यथा सूत्र 'जाति' के पर्याय 'उत्पाद' का व्यवहार करता है, 'अनित्यता के पर्याय व्यय' का व्यवहार करता है उसी प्रकार 'जरा' के पर्याय 'स्थित्यन्यथात्व' का प्रयोग करता है । यदि सूत्र केवल तीन ही लक्षणों का निर्देश करता है तो इसका कारण यह है कि विनयों में उद्वेग उत्पन्न करने के लिये यह उन्हीं धर्मों को संस्कृत का लक्षण निर्दिष्ट करता है जिनके कारण संस्कृत का त्रैयध्विक संचार होता है : जाति के बल से इसका अनागत से प्रत्युत्पन्न में संचार होता हैं (संचारयति); जरा (स्थित्यन्यथात्व) और अनित्यता (व्यय) पुन: प्रत्युत्पन्न से अतीत में संचार कराते हैं क्योंकि जब जरा दुर्बल करती है (दुर्बलीकृत्य) तो अनित्यता विघात करती है (विघातात्) । निकाय में एक उपमा दी है (विभाषा, ३९, ६) : मान लीजिये कि एक पुद्गल निर्जन अरण्य में है और उसके तीन शत्रु उसका विघात करना चाहते हैं। पहला इस पुद्गल का [२२४] अरण्य से निष्कासन करता है, दूसरा उसको दुर्बल करता है, तीसरा उसके जीवित को विनष्ट करता है। संस्कृत के प्रति तीन लक्षणों की यही वृत्ति है। -इसके विपरीत स्थिति' संस्कृत को स्थापना करती है और उसके अवस्थान में हेतु है । इसीलिये सूत्र लक्षणों में उसकी गणना नहीं करता। पुनः असंस्कृत का भी स्वलक्षण में स्थितिभाव होता है : स्थितिलक्षण असंस्कृत की इस स्थिति के सदृश है । असंस्कृत का भी संस्कृतत्व-प्रसंग न हो इसलिये सूत्र 'स्थिति को संस्कृत का लक्षण नहीं निर्दिष्ट करता । सौत्रान्तिकों की यह कल्पना है कि सूत्र में स्थिति का निर्देश है। स्थिति और जरा को यह एक साथ निर्दिष्ट करता है : स्थित्यन्यथात्व अर्थात् 'स्थिति और अन्यथात्व'। आप कहेंगे कि इन दो लक्षणों को विभागशः न कहकर एक लक्षण के रूप में कहने का क्या प्रयोजन हैं ?-यह स्थिति संगास्पद है : 'स्थिति' में आसंग न हो इसलिये सूत्र उसको जरा के साथ (अभिसमस्य) निर्दिष्ट करता है यथा (अलक्ष्मी सहित) श्री. को कालकर्णी सहित निर्दिष्ट करते हैं। अतः संस्कृत-लक्षण चार ही हैं। किसी धर्म के जाति, स्थिति आदि भी संस्कृत हैं। अतः इनका उत्पाद, स्थिति, अन्यथात्व, व्यय होता है । अतः पर्याय से इनको चार लक्षण, जाति-जाति आदि होते हैं जो.मूलधर्म के अनुलक्षण है। यह अनुलक्षण भी संस्कृत हैं। अतः इनमें से एक एक के चार चार लक्षण होंगे। यह अपर्य- वसान दोष है। कोई अपर्यवसान दोप नहीं है । 3 आभिप्रायिको हि सूत्रनिर्देशो न लाक्षणिकः । [च्या १७२.३] ' यही उपमा, एक दूसरे उपदेश के लिये, अत्यसालिनी, ६५५ । नियमिव फालकोसहितम् [ध्या १७२.२२]; घफ़--इन्ट्रोडक्शन, पृ. २५५ से तुलना कीजिये। -