पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/१८९

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द्वितीय कोशस्यान : चित्त-विप्रयुक्त जातिजा यादवलेपां नष्टयमकवृत्तयः । जन्यस्य अनिका नातिन हेतुप्रत्ययविना ।।४।। ४६ ए-वी. पर्याय से जाति-जाति, स्थिति-स्थिति, आदि इनके ललग होते हैं । मूललक्षण की वृत्ति आर धर्मों में है, ननुलमग को एक धर्म में। [२२५] पूर्वोक्त बार मूल लक्षण । वार बनुलनण-जाति-जाति, स्थिति-स्थिति, जरा-जरा, अनित्यता-अनित्यता । सब संस्कृत मूललनवा संस्कृत हैं। यह पर्याय ने चार अनुलक्षणवश संस्कृत हैं। आप कहते हैं कि विरोपित वर्म के तुल्य मूललक्षणों में से प्रत्येक के चार लक्षण होने चाहिये और इसी प्रकार । यह इसलिये है क्योंकि आप नहीं मानते कि यह भिन्न लक्षणों की वृत्ति (= धर्मकारित = पुरुषकार ४.५८) है। जब एक बर्न की उत्सत्ति होती है जिसे आप मूलबर्न, चित्त, चैत्त कहते हैं तो बामनवन १ धर्मों का नहोलाद होता है : मूलधर्म, बार मूललमय, वार अनुलक्षण । प्रथम मूललक्षण मात् मूलजाति (जाति, मूलनाति) मूलधर्म, तीन मूललक्षण (स्थिति, जरा और अनित्यता) और चार अनुलक्षणों का उत्साद करता है : कुल मिलाकर आठ बर्मों का । यह अपना उत्ताद नहीं करता : यह जाति-जाति नामका अनुलमण से उत्पन्न होता है । यथा एक मुर्गी अनेक बंडे देती है किन्तु एक से एक ही मुर्गी पैदा होती है (विनापा, ३९,४), उसी प्रकार मूलजाति (जाति, मूलजाति) मा धर्म जनित होते हैं किन्तु जाति-जाति से केवल एक धर्म अर्थात् मूलजाति जानत होती है। इसी प्रकार अन्य मूललना और अनुलमपों की ययायोग योजना होनी चाहिये । स्थिति- स्थिति मूलनियति को मापना करती है और यह मूलयिति मूलबर्न, तीन मूलकान और नियनि- स्थितिसहित चार अनुलक्षणों की स्थापना करती है । इसी प्रकार नूल जरा कार अनित्यता है जो आठ वर्मों को जीर्ण बार विनष्ट करती हैं और जो अनुरूप अनुलक्षण ते, जरा-जरा और अनित्यता-अनित्यता ने, स्वयं जीर्ण और विनष्ट होती है। [२२६] बतः लक्षणों के स्वयं लमग होते हैं जिन्हें अनुलक्षण कहते हैं : इनको संख्या ४ है, १६ नहीं बीर अनिष्ठा दोष नहीं है । सौत्रान्तिक कहता है: १. यह तो भाकाम को विभक्त करना है। जानि, स्पिति मादि पृथक्-पृथक् द्रव्य नहीं . जातिनात्यादयतयां तेष्टयमंकवृत्तयः । [या १७२.३४ तया १७३.६] नक्षल और मनु क्षणों के बाद का प्रतिष नागार्जुन ने नव्यमक, ७.१ में किया है। सामितीयों के बाद के लिये नव्यमकवत्ति, प.०१४८ देखिये। उलाद, वाशेलाद, लादि यह सात लक्षण और सात मनुलक्षण मानते हैं। सदेतद् आकाशं पश्यते [या १७३.२२ में पाट्यते पाठ है] : बाकावर फुछ है नहीं; यह सप्रतियल्प का सर्वदा ममान है। यह विभक्त नहीं हो सकता (विपश्यते, विनियते)। १