पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/१९

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अभिधर्मकोश प्रत्येकाबुद्ध और श्रावकों ने भी सर्व अन्धकार को हत किया है क्योंकि क्लिष्ट सम्मोह का उनमें अत्यन्त विगम हुआ है। किन्तु उन्होंने अन्धकार का सर्वथा विनाश नहीं किया है क्योंकि अक्लिष्ट सम्मोह का उनमें समुदाचार होता है? : वह बुद्ध-धर्मो को {७ . २८),२ अति विप्रकृष्ट देश और अति विप्रकृष्ट काल के अर्थों को (७.५५)3 और अर्थो के अनन्त प्रभेदों को नहीं जानते। आत्महित-प्रतिपादक संपत्ति (आत्महित-प्रतिपत्ति-सम्पत्) की दृष्टि से भगवत् का इस प्रकार गुणाख्यान कर आचार्य प्रहित-अतिपत्तिसम्पत् की दृष्टि से उनका स्तवन करते हैं : "उन्होंने संसार-पंक से जगत् का उद्धार किया है ।" संसार पंक है क्योंकि जगत् का वह आरसंग-स्थान है, क्योंकि उसका उत्तरण दुस्तर है। भगवत् ने इस पंक में जगत् को अत्राण अधमग्न देख, उन पर अनुकम्पा कर, उनको सद्धर्मदेशना" का हस्त प्रदान कर, यथाभव्य उनका पंक से उद्धार किया। [३] "इस यथार्थशास्ता को"१ यथार्थ के शास्ता को, क्योंकि यह अविपरीत भाव से यथाभूत का उपदेश देते हैं, मैं शिर से प्रणाम कर नमस्कार करता हूँ। भगवत् को इस प्रकार 9 वास्तव में प्रत्येकबुद्ध और श्रावकों ने अक्लिष्ट अज्ञान का प्राण किया है जैसे उन्होंने छन्दराग के प्राण से चक्षुरादि इन्द्रिय का प्रहाण किया है। किन्तु यह अक्लिष्ट अज्ञान चक्षुरादियत् महीण होने पर ही उनमें समुदाचार करता है। बुद्ध में ऐसा नहीं होता । इसीलिए आवार्य कहते हैं कि उन्होंने अन्धकार को इस प्रकार हत किया है कि उसका पुनरनुत्पत्तिधर्मत्व सिद्ध होता है। घाख्या ४.१९] ३ शारिपुत्र तथागत के (शीलादि) पंच स्कन्ध को नहीं जानते। व्याख्या ४.३३] 3 मौद्गल्यायन नहीं जानते कि मरीचि-("भारीची व्याख्या ५.७) लोकधातु में उनकी माता पुनरुत्पन्न हुई हैं। व्याख्या ५.७] शारिपुत्र प्रन्नज्यापेक्ष पुरुष (७.३० देखिए) के कुशल-मूल नहीं देख पाए, किन्तु बुद्ध यहा- मोक्षबीजमहं हास्य सुसूक्ष्ममुपलक्षये। धातुपाषाणविवरे निलीनमिव कांचनम् ॥ बर, सूत्रालंकार, पृ. २८६ से तुलना कीजिए। ४ जैसा गाया में कहा है- सर्वाकारं कारणमेकस्य मयूरचन्द्रकस्यापि । नात्सर्वज्ञतेयं सर्वज्ञज्ञानवलं हि तत् ॥ व्याख्या ५.१६] व्याख्या में चतुर्य चरण का पाठ 'सर्वशवलं हि तज्ज्ञानम्' है । ५.१७] व्याख्या ६.५ में सद्धर्म-देशना-हस्त-प्रतानः पढ़िए । व्याल्या ६.५ में प्रतानः के स्थान में प्रदानः पाठ है ।) उत्तारणीय पुद्गल अनेक है। इस लिए बहुवचन का प्रयोग है। ययाभव्य-'ययासंभव' । विना कहे ही यह गमित होता है । यया जन लोक में कहते है "उसने ब्राह्मणों को भोजन करण्या" तो इसका यह अर्थ नहीं होता कि उसने सकल लोक के ग्राह्मणों को भोजन कराया। मावेव, शतक, २६५ में यह पद है। ६ 1