पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/१९२

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१७८ अभिधर्मकोश इस प्रकार अभिधर्म (प्रकरणपाद, १४ बी ७) का लक्षण युक्त पाया जाता है : "स्थिति क्या है ?, उत्पन्न और अनिरुद्ध संस्कार"-क्षणधर्मता उत्पन्न का अविनाश' नहीं हो सकती। किन्तु ज्ञानप्रस्थान (२, १३) कहता है : “एक चित्त के संबन्ध में (एकस्मिन् चित्ते) उत्पाद क्या है ? यह जाति है ।----व्यय क्या है ? यह मरण है। स्थित्यन्यथात्व क्या है ? यह जरा है।" किन्तु शास्त्र के इस वाक्य की अभिसंधि चित्त-क्षण से नहीं है किन्तु निकायसभागचित्त से है। [एक निकायसभाग में (२-४१) अनेक चित्त होते हैं किन्तु इस अनेक चित्त को एक चित्त कह सकते हैं ।] ३. किन्तु यदि लक्षणों को द्रव्य न मानें तो कह सकते हैं कि प्रत्येक पृथग्भूत क्षण के चार लक्षण होते हैं। वास्तव में (१) प्रत्येक क्षण का अभूत्वा भाव है : उसका अभूत्वा भाव उसकी जाति है; (२) भूत्वा अभाव होता है : यह उसका व्यय है; (३) क्षण की स्थिति उत्तरोत्तरक्षणानु- बन्ध है : वास्तव में उत्तर क्षण का पूर्व क्षण से सादृश्य है; अतः यह उसका प्रतिनिधिभूत है : पूर्व क्षण मानों अब भी है, अव भी अवस्थान करता है (अवतिष्ठत इव) । अतः उत्तर क्षण पूर्व क्षण की स्थिति माना जा सकता है; (४) इस स्थिति का विसदृशत्व उसका स्थित्यन्यथात्व है । क्या आप कहते हैं कि जव उत्तरोत्तर क्षण सदृश होते हैं तब विसदृशत्व नहीं होता? विसदृशत्व होता है जैसा कि एक बज़ के चिर-आशुतर पातकाल के भेद से होता है जो क्षिप्त या अक्षिप्त है, जो बलपूर्वक क्षिप्त है या दुर्बलता के साथ क्षिप्त है : [२३०] यह भेद वज्र के महाभूतों के भिन्न परिणागविशेष के कारण है ।-जब धर्मों की उत्तरोत्तर उत्पत्ति निकायसभाग में होती है तव भेद स्वल्प होता है। इसीलिये यद्यपि वह निविशेष नहीं है तथापि उनको सदृश मानते हैं । सर्वास्तिवादिन् दोष दिखाते हैं-लक्षणों को आपकी व्यवस्था अव्यापिनी है, सब संस्कृत-धर्मों में नहीं घटती। वास्तव में आपका बताया हुआ स्थिति का लक्षण उत्तर क्षण की अपेक्षा करता है । शब्द या अर्चि के अन्तिम क्षण के लिये, अर्हत् के चित्त के अन्तिम क्षण के लिये, इस उत्तर क्षण का अभाव होता है । अतः शब्द, अत्रि, अर्हत् के अन्तिम क्षण की न स्थिति है, न अन्यथात्व। सब संस्कृत धर्मो की स्थिति है ऐसा हम नहीं कहते! हम कहते हैं कि जिसकी स्थिति है उसका अवश्य अन्यथात्व होता है । भगवत् तीन लक्षणों का उपदेश करते हैं क्योंकि कुछ अवस्थामों में (संभवं प्रति) तीन लक्षण होते हैं। किन्तु अन्त्य अचि-क्षण का उत्पाद और व्यय ही होता है; इसकी स्थिति और स्थित्यन्यथात्व नहीं होते । ' क्षिप्ताक्षिप्तलिदुर्वलक्षिप्तस्य वज्रादेश्चिराशुतरपातकालभेदात् । [व्या १८६.१२, २२] । ३, संघभद्र ४०८, ३७. i