पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/१९३

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द्वितीय कोशस्थान : चित्त-विप्रयुक्त संक्षेप में संस्कृत धर्म का अभूत्वा भाव होता है, भूत्वा अभाव होता है, इन धर्मों का प्रवाह इनकी स्थिति ह, प्रदाह का विसदृशत्व इनका स्थित्यन्यथात्व है। विलक्षणसूत्र में भगवत् की यही शिक्षा है। उत्पादादि द्रव्य नहीं है । ४. वैभापिक का आक्षेप---आपके अनुसार उत्पाद यही संस्कृत धर्म है क्योंकि इसका अभूत्वा भाव है । अतः लक्ष्य धर्म लक्षण भी होगा। क्या दोप है ? महापुरुष के लक्षण महापुरुष से अन्य नहीं हैं। शवलाश्व के लक्षण शृंग, ककुद, गलस्तन, खुर, पुच्छ शबलाश्व से अन्य नहीं हैं। महाभूत का अस्तित्व काठिन्यादि (१.१२ डी) स्वलक्षण से पृथक् नहीं है। --यथा वैभाषिक के मत में जो क्षणिकवादिन् है धूम' का ऊर्ध्वगमन धूम से अन्य नहीं है।' [२३१] आइये और परीक्षा करें। यद्यपि संस्कृत रूपादि के स्वभाव का ग्रहण हो भी तथापि तव तक उनका संस्कृतत्व लक्षित नहीं होता जब तक उनका प्रागभाव पश्चादभाव और सन्तति-विशेष ज्ञात नहीं होते । अतः संस्कृतत्व संस्कृतत्व से लक्षित नहीं होता किन्तु प्राग- भावादि से संस्कृतत्व लक्षित होता है। और रूपादि संस्कृतों से भिन्न जात्यादि द्रव्यान्तर नहीं होते । ५. यदि हम लक्षणों के द्रव्यत्व को स्वीकार करते हैं तो क्योंकि वह सहभूत कहे जाते हैं हमको मानना पड़ेगा कि धर्मो का उत्पाद, स्थिति, जराव और व्यय एक ही काल में होता है । व्यर्थ ही सर्वास्तिवादी कहते हैं कि लक्षणों का कारित्र-काल भिन्न होता है, अनागत जाति स्वोत्पत्ति के पूर्व ही कारित्र करती है तथा उत्पन्न होकर और उत्पाद नहीं करती; स्थिति, जरा और अनित्यता अपना कारित्र करती है जब वह प्रत्युत्पन्न होती हैं, न कि जब अनागत होती हैं और क्योंकि अन्तिम तीन लक्षणों का कारित्र-काल उस समय होता है जब प्रथम का कारित्र समाप्त हो जाता है इसलिये चार लक्षणों का विना विरोध के सहभूतत्व होता है। पहले हम जाति का विचार करें जो अनागत अवस्था में ही अपना कारित करती है। इसकी परीक्षा करनी होगी कि क्या एक अनागत धर्म का द्रव्यतः अस्तित्व (५.२५, पृ० ५०) है, क्या द्रव्यतः होते हुए भी अनागत जाति कारित करती है। यदि मनागत जाति उत्पाद का अपना कारित्र करती है तो वह अनागत कैसे सिद्ध होती है ? वास्तव में वैभाषिकों का सिद्धांत है कि धूम क्षणिक है । जब यह ऊर्ध्व देशान्तर में 'उत्पद्यमान होता है तब इसको ऊर्ध्वगमन की आख्या होती है (ऊर्ध्वगमनाख्या लभते) और यह अवगमन घूम से भिन्न लक्षित होता है। (४.२ वी देखिये) न च संस्कृतानां रूपादीनां तावत् संस्कृतत्वं लक्ष्यते गृल्तापि स्वभावं यावत् प्रागभावी न ज्ञायत्ते पश्चाच्च संततेश्च विशेष (इति) न तेनैव संस्कृतत्वेन संस्कृतत्वं लक्ष्यते । यदि रूप के स्वभाव का ग्रहण कर, उसके प्रागभाव को जानने के पूर्व, मैं उसे संस्कृत के रूप में (संस्कृतमिति) ग्रहण करता तो यह कहा जा सकता था कि संस्कृत संस्कृत का लक्षण है, संस्कृत संस्कृत से लक्षित है (तेनैव तल्लक्षितं स्यात्), किन्तु ऐसा नहीं है । [च्या १७७. .२६] । ५.२५ पृ० ५० १ ?