पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/१९४

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अभिधर्मकोश -[२३२] अनागत धर्म वह है जो अप्राप्तकारित्र है (अप्राप्तकारित्रं ह्यनागतमि सिद्धान्तः [व्या -१७८.९] । आपको अनागत का लक्षण बताना होगा। दूसरे पक्ष में जब धर्म उत्पन्न होला है, जब वह उपरतकारित्र है, तब उत्पाद की क्रिया अतीत होती है। आप यह कैसे सिद्ध करते हैं कि जाति वर्तमान है ? आपको वर्तमान का लक्षण कहना होगा। अन्य लक्षणों के लिये दो में से एक बात है । उनका कारित्र या तो एक साथ होता है या उत्तरोत्तर होता है। पहले पक्ष में जब स्थिति धर्म का अवस्थान करती है तो जरा उसको जीर्ण करती है और अनित्यता उसका विनाश करती है : वही धर्म अवस्थान करता है, जीर्ण होता है और विनष्ट होता है। दूसरे पक्ष में यह स्वीकार करना कि लक्षणों के कारित्र का सह- भूतत्व नहीं है यह स्वीकार करना है कि तीन क्षण हैं और यह क्षणिकत्व को बाधित करता है। वैभाषिक उत्तर देता है : मारा क्षण वह काल है जिसमें लक्षण अपना कार्य परिसमाप्त करते हैं (कार्यपरिसमाप्तिलक्षण एष नः क्षणः)२६ व्या १७८.१८] इस विकल्प में आप बतावे कि क्यों सहोत्पन्नों में स्थिति अपना कारित करती है, स्थाप्य की स्थापना करती है (स्थाप्यं स्थापयति) किन्तु उस काल में जरा जीर्ण नहीं करती और अनि- त्यता विनाश नहीं करती?...यदि आपका यह उत्तर है कि अधिक बलवान् होने से स्थिति अपने ‘कारिय को पहले करती है तो हम प्रश्न करते हैं कि पश्चात् स्थिति कैसे इस प्रकार निर्वल हो जाती है कि जरा और अनित्यता के संयोग से केवल वह स्वयं जीर्ण और विनष्ट नहीं होती किन्तु उसके "साथ वह धर्म भी जीर्ण और विनष्ट होता है जिसको यह स्थापित करती है ? कदाचित् आप यह कहें कि कृतकृत्य होकर स्थिति पुनः कारित्र नहीं कर सकती यथा जाति जन्य को जनित कर पुनः उत्पाद नहीं करती? ---यह उपमा युक्त नहीं है। जाति का पुरुषकार इसमें है कि यह जन्य धर्म को अनागत से वर्तमानता में आनीत करती है : वर्तमानता में आनीत [२३३] धर्म का पुनः आनयन जाति नहीं कर सकती। किन्तु स्थिति का पुरुषकार स्थाप्य' धर्म को स्थापित करता है (स्थापयति) और स्थाप्यधर्म को जीर्ण और विनष्ट होने से बचाता है। स्थिति स्थाप्य की अत्यन्त स्थापनाकर सकती है। अतः स्थिति अपने पुरुषकार की पुनरावृत्ति कर सकती है। 'किस अन्तराय या किन प्रतिबन्धों के कारण स्थिति के कारित्र का एक बार आरंभ होने पर उपरम होता है ? क्या यह प्रतिवन्ध जरा और अनित्यता हैं : जरा स्थिति को दुर्बल करती है और अनित्यता पश्चात् दुर्बल स्थिति का घात करती है ? इस विकल्प में जरा और अनित्यता स्थिति से बलीयसी हैं। अतः यह युक्त है कि वह पूर्व अपने कारित्र को करती हैं । ----पुनः स्थिति और ' वैभाषिक 'क्षणिकवादी' है: धर्म की स्थिति एक क्षण के लिये होती है और उसी क्षण में वह विनष्ट होता है। ४.२ बो देखिये; वैसिलीफ़, पृ. ३२५--किन्तु क्षण का क्या अर्थ सम- झना चाहिये ? इसमें कठिनाई है । अन्य लक्षण, ३.८६ ए। परमार्थ का पाठ : चतुर्लक्षणकार्यपरिसमाप्तिः । शब्दसूची में 'भण' देखिये। २