पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/१९५

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द्वितीय कोशस्थान : चित्त-विप्रयुक्त

उसके कारित्र को आपकी कल्पना के अनुसार केवल मूलधर्म ही नहीं किन्तु जरा और अनित्यता भी स्थिति के कारित्र से स्थापित होती हैं। अतः जव स्थिति का कारित्र निवृत्त होता है तब जरा, अनित्यता और उस मूलवर्म की भी स्थिति नहीं रहती। प्रश्न है कि कैसे और कहां जरा और अनित्यता जीर्ण और विनष्ट करने के अपने कारित्र को करेंगे। हम सत्य ही नहीं जानते कि जरा और अनित्यता को क्या करना है। स्थिति सामथ्यं से ही एक धर्म उत्पन्न होकर कालविशेष के लिये विनष्ट नहीं होता, उत्पन्नमात्र हो विनष्ट नहीं होता। यदि स्थिति उपरतकारित्र हो धर्म की उपेक्षा करे तो धर्म की ध्रुव ही स्थापना न होगी अर्थात् यही इसका विनाश है। हम धर्म की स्थिति और अनित्यता को जानते हैं : "उत्पन्न होकर धर्म का विनाश नहीं होता, अवस्थित होकर धर्म का विनाश होता है ।"-किन्तु धर्म की जरा कैसे होती है ? जरा स्थित्यन्यथात्व है, दो अवस्थानों का विसदृशत्व है। क्या धर्म के लिये यह कह सकते हैं कि यह अपने से अन्य प्रकार का हो जाता है ? "यदि यह वहीं रहता है तो यह अन्यथा नहीं होता। यदि इसका अन्यथाभाव होता है तो यह वह नहीं है । अतः एक धर्म का अन्यथात्व असंभव है।" [२३४] निकायान्तर' के अनुसार अग्नि-पुद्गरादि विनाश के बाह्य हेतुओं के संनिपात से अनित्यतालक्षण काष्ठ-घटादि धर्मविशेष का विनाश करता है। वृथावाद! यथा एक रोगी ओपषि का व्यवहार करके उसको प्रभावशील बनाने के लिये देवों की प्रार्थना करता है ! इस सिद्धान्त के नय में विनाश के वाह्यहेतु ही विनाश करते हैं, अनित्यतालक्षण का कोई प्रयोजन नहीं है । इसी निकाय का मत है कि अनित्यतालक्षण के योग से चित्त और चत्त, शब्द और अचि का क्षणनिरोध होता है और यह विनाश के बाह्य कारणों की अपेक्षा नहीं करते । अनित्यता और स्थिति अपने कारित्र को युगपत् करते हैं : एक धर्म की स्थिति और विनष्टता युगपत् होती है। यह अयुक्त है। हम इस निश्चय पर पहुंचते हैं कि भगवत् की संस्कृत लक्षणों को देशना प्रवाह के. प्रति है। इस अर्थ में सूत्र सुनीत हैं : “तीन लक्षण दिखाते हैं कि संस्कृत संस्कृत है अर्थात् प्रतीत्यसमुत्पन्न यदि अनागत जाति जन्य धर्म को जनित करती है तो सव अनागत धर्मों की उत्पत्ति युगपत् क्यों नहीं होती ? १ ? १ यदि स एव नासावधान्यथा न स एव [हि । तस्मादेकस्य धर्मस्य नान्यथात्वं प्रसिध्यति । व्या १७९.७] संधभद्र, ४१०, १, २० सम्मितीय (४.२ सी देखिये) [व्या १७९.९] २ एवमेतत् सूत्र सुनीतम्....[व्या १७९.१४] भूमिका में हम अनित्यत्व और क्षणिकत्व पर विविध वादों का अध्ययन करेंगे। ऊपर पृ० २३१ देखिये। सर्व संस्कृत धर्म स्वलक्षण 'जाति' से जनित होता है । जन्य धर्म के ३