पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/१९६

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१८२ अभिधर्मकोश ४६ सी-डी. जन्य धर्म की जनिका जाति है किन्तु हेतुप्रत्यय के विना नहीं। हेतुप्रत्यय के सामय' के विना केवल जाति जन्य धर्म के उत्पाद का सामर्थ्य नहीं रखती। अतः सव अनागत धर्म युगपत् उत्पन्न नहीं होते हैं । [२३५] १. सौत्रान्त्रिकों का आक्षेप-~-यदि ऐसा है तो हमारा विचार है कि हेतु उत्पाद करते हैं, जाति नहीं-यह लक्षण विचित्र है जो अनादिकाल से धर्मसहगत है और जो धर्म का उत्पाद करता है यदि पश्चात् इस धर्म के हेतुओं का सामग्य,होता है ! जब हेतु परिपूर्ण होते है तब धर्म की उत्पत्ति होती है; जब वह परिपूर्ण नहीं होते तब इसकी उत्पत्ति नहीं होती है । आप 'जाति' का क्या सामर्थ्य बताते हैं ?' २. सर्वास्तिवादिन् का उत्तर--क्या आप सब धर्मों को जिनका अस्तित्व है जानते हैं ? धर्म की प्रकृति सूक्ष्म है ! ' यद्यपि उनका द्रव्यत्व प्रत्यक्ष है तथापि वह दुःपरिच्छेद हैं । पुन: 'जाति' लक्षण के अभाव में जातबुद्धि (=जात इति) नहीं होगी। और यदि 'जाति', धर्म से अन्य द्रव्य नहीं है जिसका अभूत्वा भाव होता है तो, 'रूपस्य उत्पादः', 'वेदनाया उत्पादः। इन पदों का षष्ठी-वचन युक्त न होगा यथा 'रूपस्य रूपम्', 'वेदनायाः वेदना' इनका षष्ठी-निर्देश नहीं होता । इसी प्रकार स्थिति, जरा, अनित्यता की योजना यथायोग्य होनी चाहिये । ३. सौत्रान्तिक का उत्तर--यह वाद आपको बहुत दूर ले जायगा : शून्यता, अनात्मत्व को युक्त सिद्ध करने के लिये आप 'शून्य', 'अनात्म' का द्रव्यतः अस्तित्व मानेंगे । पुनः एक, दो, [२३६] महत्, अणु, पृथक्, संयुक्त, विभक्त, पर, अपर, सद्रूप आदि बुद्धि की सिद्धि के लिये आप वैशेषिकों के तुल्य एक द्रव्यपरम्परा मानेंगे : संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व ५ १ साथ ही 'जाति' की उत्पत्ति होती है। स्वजन्म के पूर्व ही 'अनागत' जाति उसको जनित करती है । जन्यस्य जनिका जातिन हेतुप्रत्ययविना । हेतु और प्रत्यय का लक्षण २.४९, ६१ सी में दिया है। व्याख्या भदन्त अनन्त वर्मा के उत्तर को उद्धृत करती है: "चक्षु आलोकादि के बिना चक्षुर्विज्ञान कउत्पाद नहीं करता किन्तु इसलिये ऐसा नहीं है कि उसकी उत्पत्ति में वह कारण नहीं है." --उत्तर : "हम कहते हैं कि आलोकादि के होते हुए भी अन्ध नहीं देखता, अनन्ध देखता है। अतः चक्ष का दृष्ट-सामर्थ्य । जाति के लिये ऐसा नहीं है ।" २.७१ ची-७२, ३. ३५ डी और ७.३२ की व्याख्या में अनन्त वर्मा का नामोल्लेख है। [च्या १७९.१९]] सूक्ष्मा हि धर्मप्रकृतयः [व्या १७९.२४]--स्पर्शादि चैत्त का स्वभाव सूक्ष्म है क्योंकि दुपारच्छेच है। सौत्रान्तिक कहते हैं-निस्सन्देह; किन्तु भगवत् ने स्पर्शादि का कारित्र निर्धारित किया है : "जो कुछ वेदनास्कन्ध, संज्ञास्कन्ध, संस्कारस्कन्ध है वह सब स्पा- प्रत्ययवश है. . . ."किन्तु उन्होंने 'जाति' का कारित्र निर्धारित नहीं किया है। रूप में रूपबुद्धि स्वलक्षगापेक्षा होती है। किन्तु "रूप जात है" यह जातवृद्धि रूपापेक्षा नहीं होती क्योंकि "वेदना जात है" इस वेदना का जब प्रश्न होता है तब भी मेरी यही जाति-वृद्धि होती है।" अतः जातवृद्धि रूप-वेदना से अर्थान्तर जाति-द्रव्य के कारित्र की अपेक्षा करती है। [पा १७९.२९] २ 1