पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/१९७

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द्वितीय कोशस्थान : चित्त-विषमुक्त अपरत्व, सत्ता आदि। आपको घटबुद्धि सिद्ध करने के लिये एक 'घटत्व' परिकल्पित करना होगा। षष्ठी के विधान के लिय रूप का संयोग ह । आपको इष्ट नहीं ह कि रूप का स्वभाव रूप से अन्य है और इस पर भी आप "रूपस्य स्वभावः" यह कह कर पष्ठी की कल्पना करते हैं 1 अतः आपने यह सिद्ध नहीं किया कि 'जाति' द्रव्य है । आपने यह भी सिद्ध नहीं किया कि यह प्रज्ञप्तिमात्र नहीं है क्योंकि इसका अभूत्वा भाव है । जब मैं किसी धर्म के अभूत्वा भाव को शापित करना चाहता हूँ तब मैं कहता हूँ कि “यह धर्म जात है", मैं इस धर्म को उत्पन्न प्राप्त करता हूँ।--रूप, वेदनादि बहु धर्म उत्पन्न होते हैं अर्थात् उनका 'अभूत्वा भाव होता है। अतः बहु जाति है अर्थात् बहु धर्म उत्पन्न होते हैं । जाति के बहु- विकल्प (बहुभेद) हैं। अतः उसको विशेषित करने के लिये जिसमें चोदक जाने कि रूप का उत्पाद है, वैदनादि का नहीं, मैं पष्ठी का प्रयोग करूँगा, "रूपस्य उत्पादः', 'वेदनाया उत्पादः' यद्यपि रूप का उत्पाद उत्पद्यमान रूपमात्र है। यथा लोक में कहते हैं 'चन्दन का गन्ध' यद्यपि चन्दन गन्धमात्र है और 'शिलापुत्रक शरीर' यद्यपि शिलापुत्रक शरीरमात्र है।' ४. सर्वास्तिवादिन का उत्तर--क्योंकि हम जाति-लक्षण के अस्तित्व को मानते हैं जो संस्कृत [२३७] में होते हैं और असंस्कृत में नहीं होते अतः हम सुगमता के साथ बताते हैं कि क्यों असंस्कृत की उत्पत्ति नहीं होती। किन्तु यदि संस्कृत 'जाति' के विना ही उत्पन्न होते हैं तो आकाशादि असंस्कृत क्यों नहीं उत्पन्न होते ? हमारा कहना है कि संस्कृतों की उत्पत्ति होती है क्योंकि उनका 'अभूत्वा भाव है (अभूत्वा भवन्ति) । किन्तु असंस्कृत नित्य है। उसकी उत्पत्ति कैसे हो सकती है ?--आप बताते हैं कि असंस्कृत धर्मविशेप जाति-लक्षण से रहित होते हैं क्योंकि आपके अनुसार ऐसी धर्मता है। : हम कहेंगे कि धर्मता के कारण सव धर्म नहीं उत्पन्न होते, जातिमत् होते (न सर्व जायते)। ---इसके अतिरिक्त आपके अनुसार सर्व संस्कृत का तुल्य जातिमत्त्व होता है (तुल्ये जातिमत्त्वे)। असंस्कृत का जातिमत्त्व आप नहीं मानते किंतु आप मानते हैं कि रूपोत्पाद के प्रत्ययों से वेदनोत्पत्ति के प्रत्यय अन्य हैं, एक के प्रत्यय दूसरे के उत्पादन में समर्थ नहीं होते। इसी प्रकार हमारे मत में संस्कृत और भसंस्कृत समान रूप से जातिलक्षण से विरहित हैं। इसलिये सर्व प्रत्यय जो संस्कृत का उत्पादन करते हैं असंस्कृत के उत्पादन में समर्थ नहीं हैं। । बौद्ध (बौद्धसिद्धान्त) विश्वास करते हैं कि चन्दन गन्धाविसमूहमात्र है। वैशेषिकसिद्धान्त में चन्दन द्रव्यसत् है । इसलिये आचार्य दूसरा दृष्टान्त उपन्यस्त करते हैं । शिलापुत्रक शरीर के दृष्टान्त को वैशेषिक मानते हैं। [च्या १८०.२६] ।-मध्यमवृत्ति, प. ६६ देखिये सांस्यप्रवचनभाष्य, पृ.८४, १४८, इत्यादि। . धर्माणामनादिकालिका शक्तिः ।