पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/१९९

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द्वितीय कोशस्थान : चित्त-विप्रयुक्त १८५ ४७ ए-बी. नामकायं आदि संज्ञा, वाक्य और अभर की समुक्ति हैं।' १. 'नामन्' (नाम या शब्द) का 'संज्ञाकरण'२ अर्थ करना चाहिये, यथा रूप, शब्द, गन्धादि शब्द । २. 'पद' से वाक्य का अर्थ लेते हैं अर्थात् जितने से अर्थ की परिसमाप्ति होती है (यावतार्थपरिसमाप्तिः), यथा यह वाक्य : "संस्कार अनित्य है. "एवमादि ।'-अथवा 'पद' वह है जिससे क्रिया-गुण-काल के संबन्धविशेष गमित्त होते हैं (येन गम्यन्ते) [व्या १८२.२७]) : यथा वह पकाता है, वह पढ़ता है, वह जाता है। वह कृष्ण है, गीर है, रक्त है; वह पकाता है, वह पकायेगा, उसने पकाया ।' ३. व्यंजन का अर्थ अक्षर, वर्ण, स्वर-व्यंजन है यथा अ, आ, इ, ई आदि । किन्तु क्या असर लिपि-अवयव के नाम नहीं हैं ? वर्गों का उच्चारण लिपि-अवयव की प्रतीति कराने के लिये नहीं होता किन्तु वर्ण की प्रतीति १ २ नामकायादयः संज्ञावाफ्याक्षरसमुवतयः [व्या १८१.२८] सुरेन्द्रनाथदास गुप्त : स्टडी आफ पतञ्जलि (कलकत्ता, १९२०)(पृ. १९२-२०१) में स्फोट के भिन्न मतों का वर्णन है । सिद्धि, ६८; स्फोट पर एवेग, मोलैंग्स विन्डिश, १९१४ । संज्ञाकरण लोकभाषा की आख्या है। नामधेय इसका पर्याय है यथा लोक में कहते हैं: "देवदत्त इसका संज्ञाकरण है"। किन्तु यहाँ अर्थ इस प्रकार है : "जिससे संज्ञा जनित होती है"। वास्तव में संज्ञा एक चैतसिक धर्म है : बुद्धि, संज्ञा, परिकल्प (१.१४ सी-डो); नामन् वह है जो इस धर्म को 'करता है, उत्पन्न करता है। यहाँ सुप्-तिङन्त पद अभिप्रेत नहीं है । (पाणिनि, १४,१४) । 'पुरी गाथा को एक 'पद' समझना चाहिये : अनित्या वत संस्कारा उत्पादव्ययमिणः। उत्पद्य हि निरुद्धयन्ते तेषां व्युपशमः सुखः॥ [च्या १८२.५] इसका अनेक प्रकार से अर्य करते हैं: ए. प्रतिज्ञाः "संस्कार अनित्य है।" हेतुः "क्योंकि उनका स्वभाव उत्पन्न और निरुद्ध होना है।" दृष्टांत । "जो उत्पन्न होकर निरुद्ध होते हैं वह अनित्य हैं।" बो. हेतुः "उनका स्वभाव उत्पन्न और निरुद्ध होना है"--यह इससे सिद्ध होता है कि "वह वास्तव में उत्पन्न होकर निरुद्ध होते हैं।" सो. संस्कार अनित्य हैं । अन्य शब्दों में उनका स्वभाव उत्पन्न और निरुद्ध होना है। "क्योंकि उत्पन्न होकर वह निरुद्ध होते हैं"; "जो अनित्य हैं वह दुःख हैं, अतः उनके व्युपशम में सुख है।" बुद्ध विनेयजन को यही सिखाना चाहते हैं। इस गाया को इन्द्र ने भगवत् को मृत्यु पर कहा था, दोघ, २.१५७; संयुत्त,१.१५८ डायलारस, २.१७६; जातवा, ९४; मध्यमवृत्ति पृ.३९; दयूत्र मैनुस्कृष्ट आफ हीन्स, जे० ए एस० १८९८, २. ३०० (ड्रान अबार्ट प.१०८); उदालवर्ग, १.१; एनडीओ, २६, अनित्यतासूत्र; जे० पूजोलुस्की, पयुनेरै, पृ.९ यह 'नामपद' का उदाहरण है । नामन् स्वलक्षण का द्योतक है। पद क्रियादिसंबन्धविशेष का घोतक है जहां उस वस्तु का अवस्यान है जिसका स्वलक्षण ज्ञात है । १ ३