पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/२०

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प्रथम कोशस्थान : धातुनिर्देश विशेषित कर आचार्य भगवत् के परहित-प्रतिपादन (प्रतिपत्ति) के उपाय को आविष्कृत करते हैं। भगवत् शास्ता ने, यथार्थ अनुशासनी से, न कि ऋद्धि-प्रभाव से या वर-प्रदान से,२ संसार-पंक से उद्धार किया है। इस यथार्थशास्ता को नमस्कार कर आचार्य क्या करेंगे? "मैं शास्त्र का प्रवचन करूंगा।" जो शिष्य का शासन करता है और उनको शिक्षा देता है वह 'शास्त्र' कहलाता है। किस शास्त्र का ? अभिधर्मकोश का। सानुचराऽभिधर्म स्तत्प्राप्तये यापि च यच्च शास्त्रम् । तस्यार्थतोऽस्मिन् समनुप्रवेशात् वाश्रयोऽस्येत्यभिधर्मकोशः ॥२॥ प्रज्ञाऽमला यह अभिधर्म क्या है ? २. ए. अपने अनुचर के साथ अमला प्रज्ञा अभिधर्म है। प्रज्ञा जिसका व्याख्यान नीचे (२.२४, ७.१) करेंगे धर्मों का प्रविचय है ।४ . अमला प्रज्ञा अनास्रव प्रज्ञा है।' जिसे प्रज्ञा का अनुचर' कहते हैं वह उसका परिवार अर्थात् प्रज्ञा के सहभू-धर्म अनास्रव पंचस्कंधक (१.७ ए) हैं। 3 २ न स्वर्द्धिवरप्रदानप्रभावेन। [व्याख्या ७,२५] प्रथम विवेचन : ऋद्धि के प्रभाव से, (७.४८) यथा विष्णु; वर-प्रदान के प्रभाव से, यथा महेश्वर । द्वितीय निरूपण---ऋद्धि से, वर-प्रदान से, अपने प्रभाव से (७.३४) । यह ठीक है कि बुद्ध कभी विनय जन के आवर्जन मात्र के लिए ऋद्धि-प्रातिहार्य दिखाते हैं किन्तु अनुशासनी-प्रतिहार्य से वह क्लेशों का क्षय कर (७.४७ ए-बी) जगत् की रक्षा करते हैं। व्याख्या ७.३०] प्रज्ञामला सानुचराभिधर्मः । [व्याख्या ८.११] ४ धर्माणां प्रविचयः---धर्म पुष्पों के समान व्यवकीर्ण हैं। उन्हें चुनते हैं (प्रविचीयन्ते, उच्ची- यन्ते) और स्तवकों में रखते हैं। यह अनास्त्रव हैं, यह सास्रव हैं इत्यादि । धर्म-प्रविचय-काल में एक चित्त-संप्रयुक्त (चत्त, चैतसिक) (२.२३) धर्म-विशेष का, जिसे प्रज्ञा कहते हैं, प्राधान्य होता है। अतः प्रज्ञा का लक्षण 'धर्म-प्रविषय है। ५ 'मल' आस्रव का पर्याय हैं । हम 'अनास्लव' के लिए 'प्योर' शब्द का व्यवहार करेंगे। आस्रवों का लक्षण ५.३५ में दिया है। नीचे १.४ देखिए। ६ अभिधर्म शब्द से केवल अनास्त्रव प्रज्ञा न समझना चाहिए जो वस्तु-स्वभाव का प्रवि- चय करती हु किन्तु चित्त-सन्तान के उस क्षण के सब अनास्रव स्कन्धों को भी समझना चाहिए जिस क्षण में यह प्रज्ञा उत्पन्न होती है : वेदनादि (१.१४ सी) । इस कलाप में एक रूप- स्कन्ध है । इसे 'अनालव-संवर' (४.१३ सी) कहते हैं। .