पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/२००

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१८६ अभिधर्मसोश कराने के लिये लिपि-अवयव लिखे जाते हैं जिसमें जब उन्हें नहीं सुनते तब भी लेख से उनकी प्रतीति होती है। अतः वर्ण लिपि-अवयव के नाम नहीं हैं । ४. 'काय' का अर्थ 'समुक्ति' है; धातुपाठ ४.११४ के अनुसार 'समुक्ति' का अर्थ 'समु- दाय' है। [२४०] अतः नामकाय= रूप, शब्द, गन्धादि; पदकाय = "संस्कार अनित्य हैं, धर्म अनात्म हैं, निर्वाण शान्त है. ."इत्यादि; व्यंजनकायक, ख, ग. . . . १. सौत्रान्तिक का आक्षेप-~या नाम, पद और व्यंजन वाक्स्वभाव और इसलिये 'शब्द' नहीं हैं ? अतः वह रूपस्कन्ध में संगृहीत हैं; वह चित्तविप्रयुक्त संस्कार नहीं है जैसा सर्वास्ति- वादी कहते हैं। सर्वास्तिवादिन्---वह वाक्स्वभाव नहीं है । वाद्घोष है और घोषमात्र से, यथा ऋन्दन से, अर्थ अवगत नहीं होता। किन्तु वाक् नामन् में प्रवृत्त होता है (वाचं. उपादाय)। यह नामन् अर्थत्व को द्योतित करता है (द्योतयति), प्रतीति उत्पन्न करता है (प्रत्याययति)। सौत्रान्तिक--जिसे मैं 'वाक्' कहता हूँ वह घोषमात्र नहीं है किन्तु यह वह घोष है जिससे अर्थ अवगत होता है अर्थात् वह धोष जिसके संबन्ध में वक्ताओं में संकेत है कि यह अमुक अर्थ की प्रतीति करेगा। इसी प्रकार पूर्वो ने 'गो' शब्द को ९ पदार्थों की प्रतीति कराने की शक्ति दी “विद्वानों ने यह व्यवस्थापित किया है कि गो शब्द के ९ अर्थ हैं : दिशा, गो-वृषभ, भूमि, किरण, बाक्, वन, चक्षु, लोक और जल " जो सिद्धांत यह मानता है कि "नामन् पदार्थ का द्योतक है" उसे यह मानना पड़ेगा कि गो शब्द के यह भिन्न अर्थ संवृति से हैं। अतः यदि अमुक नाम से श्रोता को अमुक अर्थ द्योतित होता है तो यह घोषमात्र है जो उसकी प्रतीति कराता है। जिसे आप 'नामन्' कहते है उस द्रव्य की कल्पना का क्या प्रयोजन है ? २. सौत्रान्तिक पुनः कहते हैं-नाम या तो वाक् जन्य (उत्पाद्य) है या वाक्-प्रकाश्य (व्यंग्य) है। [२४१] ए. प्रथम विकल्प में क्योंकि वाक् घोषस्वभाव है इसलिये सर्व घोषमात्र, यहाँ तक कि पशु-गजित भी, नामन् का उत्पाद करेगा-यदि आपका यह उत्तर है कि नामन् का उत्पाद - १ २ समरसिंह, ३. नानार्थवर्ग, २५ से तुलना कीजिये। अर्यात् "वाक् के होते चित्तविप्रयुक्त धर्म 'नामन्' उत्पन्न होता है" (वाचि सत्यां स चित्त- विप्रयुक्त उत्पद्यते) [व्या १८३.२१] । अर्थात् “चित्तविप्रयुक्त धर्म 'नामन्' घोष से उत्पद्यमान होने से उत्पन्न होता है : घोष अर्थ-द्योतन के लिये उसको प्रकाशित करता है।" (घोषेणोत्पद्यमानेन स चित्तविप्रयुक्तो धर्म उत्पद्यते । स तं प्रकाशयत्यर्थद्योतनाय [व्या १८३.२५] । ३