पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/२०२

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१८८ अभिधर्मकोश सौत्रान्तिक उत्तर देता है कि नामन् एक शब्द है जिसके संबंध में मनुष्यों में संकेत है कि यह एक अर्थविशेष की प्रतीति कराता है।' गाथा या वाक्य (पद) नामों का रचनाविशेष है : इसी अर्थ में भगवत् इसे नामसंनिश्रित बताते हैं। --पद नामक एक द्रव्यसत् की परिकल्पना अपार्थिक (निष्प्रयोजन) है । यथा “पिपीलिकापंक्ति' और 'चित्तानुपूर्व पिपीलिका और चित्त से अन्य द्रव्य नहीं हैं। अतः आप स्वीकार करें कि अक्षरमात्र जो शब्द हैं द्रव्य हैं। [२४३] वैभाषिक नामकाय, पदकाय, व्यंजनकाय इन चित्तविप्रयुक्त संस्कारों को स्वीकार करते हैं क्योंकि वह कहते हैं सब धर्म तर्कगम्य नहीं हैं। प्रश्न है (१) कि व्यंजन, नाम और पद किस धातु में प्रतिसंयुक्त है; (२) क्या वह सत्वाख्य (१.१० वी) हैं या असत्वाख्य; (३) क्या वह विपाकज हैं, औपचयिक हैं या नेष्यन्दिक हैं (१.३७); (४) क्या वह कुशल हैं, अकुशल हैं या अव्याकृत हैं । ४७ सी-डी. कामाप्त और रूपाप्त, सत्वाख्य, नैष्यन्दिक, अव्याकृत ।' व्यंजनादि दो धातुओं में प्रतिसंयुक्त हैं। एक मत के अनुसार उनका अस्तित्व आरूप्यधातु में भी है किन्तु वह 'अनभिलाप्य' (अकथ्य) हैं । वह सत्वाख्य हैं क्योंकि वह सत्व-प्रयत्न से अभिनिवृत्त होते हैं और वर्णादिस्वभाव हैं। वास्तव में जो द्योतित करता है वह उनसे समन्वागत होता है, द्योत्य नहीं समन्वागत होता। वह नैष्यन्दिक हैं क्योंकि वह सभागहेतुजनित (२.५२) हैं। वह विपाकज नहीं हैं क्योंकि उनकी प्रवृत्ति वक्ता की इच्छा से होती है। वह औपचयिक नहीं हैं क्योंकि वह अरूपी हैं। वह अनिवृताव्याकृत (२.२८) हैं। नामसनिश्रित है क्योंकि नाम के उत्पन्न होने पर यह होती है। अतः नाम और पद का अस्तित्व है। [व्या १८५.२०] १ अर्थेषु कृतावधिः शब्दो नाम [व्या १८५.२३] --महाव्युत्पत्ति, २४५, ३१९ में कृतावधि' ३ t २ पंक्तिवत्, 'यथा पिपीलिकाओं की पंक्ति' किंतु यह कहने का अवकाश है कि पिपीलिकाओं का जो पंक्ति की रचना करती हैं युगपत् अवस्थान होता है। किन्तु क्रमवर्ती शब्दों का रचना- विशेष नहीं होता; इससे वैषम्य होता है। अतः दूसरा दृष्टांत देते हैं : चित्तानुपूर्यवत्, [व्या १८५.२८] 'यया चित्तों का अनुक्रम ।' जो धर्म तथागत के ज्ञानगोचर में पतित हैं (तथागतज्ञानगोचरपतिता) वह तर्कगम्य नहीं हैं। [व्या १८५.३१] कामरूपाप्तसत्त्वाख्या निष्यन्दाव्याकृताः [व्या १८६.२; विभाषा, १५, १ व्यंजनादि वाक्स्वभाव नहीं हैं। उनके आरूप्यधातु में होने में कोई प्रतिबन्ध नहीं है किन्तु वहाँ वाक् का अभाव है । इसलिये नामकायादि अकथ्य है--वभाषिक : यदि वह वहाँ अफथ्य है तब आप यह कैसे कहते हैं कि उनका वहाँ अस्तित्व है ? जो नाम कुशल धर्मों को प्राप्त करते हैं वह कुशल नहीं हैं : क्योंकि जिस पुद्गल के कुशल- मूल समुच्छिन्न है वह फुशल धर्मों को द्योतित करता है और कुशल धर्म को प्राप्त करनेवाले नामों की प्राप्ति से समन्वागत होता है । २