पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/२०४

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१९० अभिधर्मकोश [२४५] ४९. कारणहेतु, सहभू, सभाग, संप्रयुक्तक, सर्वत्रग, विपाक : हेतु षड्विध इष्ट है ।' कारणहेतु, सहभूहेतु, सभागहेतु, संप्रयुक्तकहेतु, सर्वत्रगहेतु, विपाकहेतु : यह ६ प्रकार के हेतु हैं जो आभिधार्मिकों को इष्ट हैं (ज्ञानप्रस्थान, १,११) । स्वतोऽन्ये कारणं हेतुः सहभूर्य मिथः फलाः । भूतबच्चित्तचत्तानुवतिलक्षणलक्ष्यवत् ॥५०॥ १ कारणहेतुः सहभूः सभागः संप्रयुक्तकः । सर्वत्रगो विपाकश्च] षड्विधो हेतुरिष्यते ॥ [ध्या १८९.१४] अभिधर्महदय (नैजियो, १२८८), २.११. षड्विध हेतु किस सूत्र में उपदिष्ट हैं ? वास्तव में अभिधर्म सूत्र का अर्थ करता है, सूत्र का निकष हैं, सूत्र का व्याख्यान करता है (सर्वो ह्यभिधर्मः सूत्रार्थः सूत्रनिकषःसूत्रव्याख्यानम्) [व्या १८८.२३] वैभाषिक कहते हैं कि यह सूत्र अन्तहित हो गया है। एकोत्तरागम में शतक- पर्यन्त धर्म-निर्देश था। आज तो उसमें दशकपर्यन्त (आदशकात्) ही हैं (भूमिका देखिये)। किन्तु प्रतिनियत हेतुवाचक सूत्र हैं। व्याख्या में उदाहरण हैं जो, प्रतीत होता है, संघभद्र से लिये गये है (३.७९ बो१६) । (ए) कारणहेतु : "चक्षुरिन्द्रिय और रूपप्रत्ययवश चक्षुर्विज्ञान की उत्पत्ति होती है ।" (संयुत्त, ४.८७ आदि), (बी) सह हेतु : "यह तीन मागाँग सम्यग्दृष्टि का अनुवर्तन करते हैं (अनुवर्त)।" "संस्पर्श त्रिकसंनिपात है। वेदना, संज्ञा और चेतना सहजात है।" (सी) सभागहेतु : “यह पुद्गल कुशलधर्म और अकुशलधर्मों से समन्वागत है। उसके कुशल- धर्म निरुद्ध होते हैं : उसके अकुशलधर्म वृद्धि को प्राप्त होते हैं किन्तु उसके अनुसहगत एक कुशलमूल है जो असमुच्छिन्न है(अस्ति चास्यानुसहगतं कुशलमूलमसमुच्छिन्नम्) [व्या १८८, ३१] और जिससे एक अन्य कुशलमूल उत्पन्न होगाः यह पुद्गल आयति में विशुद्ध होगा।" (विशुद्धिधर्मा भविष्यति [व्या १८९.१], अंगुत्तर ३.३१५) । सदृश संदर्भ में, संयुत्त, ३.१३१ में (कथावस्थ, पु. २१५ ते तुलना कीजिये), अनुसहगत' है जिसका यहाँ यथार्थ अनुवाद संघभद्र ने दिया है । एक दृढ़ कुशलमूल इष्ट है जो स्थविर निकाय का पुराण अनु-धातु (?) है (संघभद्र, ९९ वी १९) किन्तु व्याख्या की पोथियों में 'अणुसहगत' पाठ है और ४.७९ डी के भाष्य में हम देखेंगे कि ज्ञानप्रस्थान के चीनी भाषान्तर में इस शब्द का ठीक पर्याय है । "सोई प्यू लिंग" इस परिच्छेद में अणुसहगत और मुदुमदुपर्याय हैं : अणुसहगत कुशलमूल क्या है ? इनका प्रहाण सबके पीछे होता है जब कुशलमूल समुच्छिन्न होते हैं। इनके अभाव में ही कहते हैं कि कुशलमूल समुच्छिन्न हुए हैं।" [हम ऊपर (पृ. १८४) देख चुके हैं कि यथार्थ में फुशलमूल का कभी समुच्छेद नहीं होता (डी)संप्रयुक्तकहेतुः “यह दर्शनमूलिका अवेत्यज्ञानसंप्रयुक्ता श्रद्धा है (६.७४सी): जिसे यह पुद्गल जानता है (विजानाति) उसका प्रज्ञा से प्रतिषेध करता है (प्रज्ञानाति)।" (ई) सर्वत्रगहेतु : "जिस पुरुष को मिथ्यावृष्टि (५.७) है उसके काय-कर्म, वाक्-कर्म, चेतना, प्रणिधि, तदन्वयसंस्कार आदि यह सर्व धर्म अनिष्टत्व, अप्रियत्व के लिये हैं। क्यों ? --क्योंकि उसकी पायिका दृष्टि अर्थात् मिथ्यादृष्टि है।" (अंगुत्तर, ५.२१२ से तुलना (एफ) विपाकहेतु : यहाँ किये हुए कर्म के विपाक का वहाँ उपपन्न होकर प्रतिसंवेदन करते हैं।"

कीजिये।