पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/२०८

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१९४ अभिधर्मकोश अतः दस कारणों से अनुवर्ती अनुपरिवर्ती कहलाते हैं।' सर्वाल्पचित्त ५८ धर्मो का सहभूहेतु है : अर्थात् (१) दस महाभूमिक (२.२३) और प्रत्येक के चार चार लक्षण; (२) चार स्वलक्षण और चार अनुलक्षण (२.४६) । यदि इन ५८ धर्मो में से चित्त के चार अनुलक्षणों को वर्जित कर दें--जिनका इस चित्त [२५१] में कोई व्यापार नहीं है तो ५४ धर्म हैं जो उक्त चित्त के सहभूहेतु होते हैं।' एक दूसरे मत के अनुसार १४ धर्म ही इस चित्त के सहभूहेतु हैं अर्थात् उसके चार लक्षण और १० महाभूमिक। यथा उसके अनुलक्षणों का चित्त में कोई व्यापार नहीं है उसी प्रकार महाभूमिक के लक्षणों का चित्त में कोई व्यापार नहीं है। वैभापिक इस मत का यह कि महाभूमिकों के ४० लक्षण चित्त के सहभूहेतु नहीं हैं- यह कहकर प्रत्याख्यान करते हैं कि यह प्रकरणग्रन्थ के विरुद्ध है । प्रकरणग्रन्थ के अनुसार सत्कायदृष्टि और तत्संप्रयुक्त धर्मो (जिसके अन्तर्गत महाभूमिक है) के चार २ १ १० कारण कभी एकत्र नहीं होते। यथा अव्याकृत अनुत्पत्तिकधर्मी चित्त में चार कारणों से अनुपरिवर्ती अनुपरिवर्ती होते हैं : (१) एकाध्वपतितत्व, (२) एकफलता (पुरुषकार), (३) एकनिष्यन्दता, (४) अव्याकृतत्व । व्या १९२.२०] ३ अर्थात् द्वितीय ध्यान से अर्ध्व अनिवृत्ताव्याकृत चित्त; वहाँ वितर्क, विचार और कुशल- महाभूमिक नहीं होते। व्या १९२.३०] स्वानुलक्षणों पर चित्त का अधिकार होता है (राजयते); जैसा हमने २.४६ में देखा है इनका चित्त में कोई व्यापार नहीं होता । १ जापानी संपादक प्रकरण, १३, ५ का हवाला देते हैं--नीचे पृ० २५९ और २६९ देखिये जहाँ इस वचन का उल्लेख है । प्रकरण चार आर्यसत्य और सत्कायदृष्टि के संवन्धों की परीक्षा करता है। व्याख्या में [ग्या १९३.१२) इससे एक उद्धरण दिया है जिसका हम अनुवाद देते हैं: ए. चार आर्यसत्य हैं। इनमें से कितने सत्कायदृष्टिहेतुक हैं, सत्कायदृष्टि' के हेतु नहीं हूँ, कितने सत्कायदृष्टि के हेतु हैं, सत्कायदृष्टिहेतुक नहीं हैं। कितने सत्कायदृष्टिहेतुक हैं और सत्कायदृष्टि के हेतु है; कितने न सत्कायदृष्टिहेतुक हैं और न सस्कायदृष्टि के हेतु हैं ? इस प्रश्न का वह विसर्जन करता है : दो सत्य न सत्कायदृष्टिहेतुक हैं और न सत्काय- दृष्टि के हेतु हैं : निरोधसत्य और मार्गसत्य । अन्य दो में भेद करते हैं। बी. दुःखसत्य : (१) बिना सत्कायदृष्टि का हेतु हुए सत्कायदृष्टिहेतुक, (२) सत्काय. दृष्टिहेतुक और सत्कायदृष्टि का हेतु, (३) न सत्कायदृष्टिहेतुक तथा न सत्कायदृष्टि का हेतु : यह केवल त्रिकोटिक है, द्वितीय कोटि (बिना सत्कायदृष्टिहेतुक हुए सत्कायदृष्टि का हेतु) नहीं है। १ (ए) दुःखदर्शनप्रहातव्य अतीत और प्रत्युत्पन्न अनुशय और तत्संप्रयुक्त दुःखसत्य को [यथा दुःखदर्शनमहातव्य सत्कायदृष्टि से संप्रयुक्त वेदना] ; (बी) सत्कायदृष्टिसंप्रयुक्त अनागत दुःखसत्य को (पृ.२५९, पं.११ देखिये); (सी) सत्कायदृष्टि और तत्संप्रयुक्त धर्मों को जाति-जरा-स्थिति-अनित्यता (तत्संप्रयुक्तानां च धर्माणाम् [व्या १९३.२५] । यह अन्तिम शब्द किसी संस्करण में नहीं हैं) को वर्जित कर जो अन्य क्लिष्ट दुःखसत्य है (अर्थात् सर्वधर्म जो दुःख और क्लिष्ट हैं) वह सत्कायवृष्टिहेतुक है, सत्कायदृष्टि का हेतु नहीं है। २ पूर्व परिच्छेद में स्थापित दुःखसत्य सत्कायदृष्टिहेतुक है और सत्कायदृष्टि का हेतु है।