पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/२१०

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अभिधर्मकोश लिये बीज अंकुर का हेतु है, अंकुर काण्ड का हेतु है, इत्यादि । किन्तु सहोपन्न अर्थों में यह न्याय नहीं देखा जाता। अतः आपको सिद्ध करना होगा कि सहभू धर्मो का हेतुफलभाव हो सकता है। सर्वास्तिवादिन् दो दृष्टान्त देता है । प्रदीप सप्रभ उत्पन्न होता है; आतप में उत्पद्यमान अंकुर सच्छाय उत्पन्न होता है। किन्तु प्रदीप सहोत्पन्न प्रभा का हेतु है, अंकुर छाया का हेतु है । अतः हेतु-फल सहोत्पन्न हैं। सौत्रान्तिक-यह दृष्टांत असिद्ध हैं । इसका संप्रधारण होना चाहिये (संप्रधार्यम् [व्या १९७.१८]) कि क्या प्रदीप सहोत्पन्न प्रभा का हेतु है अथवा क्या जैसा कि हमारा मत है वर्ति-स्नेहादिक पूर्वोत्पन्न हेतु-प्रत्यय-सामग्नी सप्रभ प्रदीप की उत्पत्ति में हेतु है। यथा पूर्वोत्पन्न [२५४] हेतु-सामग्री (बीज, आतपादि) अंकुर और छाया की उत्पत्ति में, सच्छाय अंकुर की उत्पत्ति में, हेतु है। सर्वास्तिवादिन्-हेतुफलभाव इस प्रकार व्यवस्थापित होता है : “हेतु का भाव होने पर फल का भाव होता है, हेतु का अभाव होने पर फल का अभाव होता है। हेतुविद् का लक्षण सुष्ठ है : जब का के भाव-अभाव से ख का भाव-अभाव नियमतः होता है तब का हेतु है, ख हेतुमान् है ।" इस प्रकार यदि हम सहभूधर्म और सहभूहेतुधर्म का संप्रधारण करते हैं तो हम देखते हैं कि एक का भाव होने पर सबका भाव होता है और एक का अभाव होने पर सबका अभाव होता है। अतः उनका परस्पर हेतुफल- भाव युक्त है। सौत्रान्तिक- हम मानते हैं कि सहोत्पन्न धर्मों में एक धर्म दूसरे धर्म का हेतु हो सकता है : चक्षुरिन्द्रिय चक्षुर्विज्ञान की उत्पत्ति में हेतु है। किंतु सहोत्पन्न धर्म परस्पर हेतु और फल कैसे होंगे ? सर्वास्तिवादिन्-हमने जो हेतुफलभाव का निर्देश किया है उससे अन्योन्यहेतुफलभाव व्यवस्थापित होता है। जब चित्त का भाव होता है तब चैत्तों का भाव होता है और अन्योन्य। सौत्रान्तिक--बहुत अच्छा, किंतु उस अवस्था में सर्वास्तिवादिन् को अपने सिद्धान्त को वद- लना होगा । वास्तव में उन्होंने उपादायरूप (भौतिक-रूप-रसादि) के अन्योन्य हेतुफ़लभाव का निषेध किया है यद्यपि रूप का रस (२.२२) के बिना अस्तित्व नहीं होता (अविनाभाविन्) । उन्होंने उपादायरूप और महाभूतों के अन्योन्यहेतुफलभाव का, अनुलक्षण और चित्त के अन्योन्यहेतुफलभाव का प्रतिषेध किया है। २ जहाँ एक महाभूत होता है वहाँ अन्य महाभूत भी होते हैं, इत्यादि। मैं ऐसा अर्य करता हूँ : "चक्षुरिन्द्रिय का एक क्षण सहोत्पन्न चक्षुर्विज्ञान की उत्पत्ति में हेतु