पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/२१३

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अभिधर्मकोश प्रयुक्त दुःखसत्य को स्थापित कर" (अनागतां सत्कायदृष्टि तत्संप्रयुक्तं च दुःखसत्यं स्थापयित्वा)। वैभाषिक का उत्तर है कि यह पाठ विनष्टक है। पाठ ऐसा होना चाहिये : "अनागत' सत्काय- दृष्टि से संप्रयुक्त दुःखसत्य को स्थापित कर" (अनागतसत्कायदृष्टिसंप्रयुक्तम् (व्या २०१. ४])। इसके मानने के लिये कि आपका पाठ प्रामाणिक है यह मानना होगा कि यह पाठ भाज्या- क्षेप से [अर्थात् पूर्वपद का अनुकरण कर] (भाष्याक्षेपात्) निर्वृत्त है, तन्त्र नहीं है (न तन्त्रम्) क्योंकि वचन का अर्थ इसी प्रकार जानना चाहिये (अर्थतो वैवम् बोद्धव्यम्) । व्या २०१. १०] 1 [२६०] ४. यदि अनागत धर्म सभागहेतु नहीं है तो इस प्रज्ञप्ति भाष्य' का कैसे व्याख्यान करना चाहिये (कथं नीयते) ? वास्तव में इस शास्त्र में कहा है कि "सब धर्म चतुष्क में नियत हैं (चतुष्के नियताः [व्या २०१.१२]) : हेतु, फल, आश्रय, आलम्बन । वैभाषिक उत्तर देता है : जब शास्त्र कहता है कि "ऐसा नहीं होता कि यह धर्म इस धर्म का कदाचित् हेतु न हो" तो उसका अभिप्राय सब प्रकार के हेतुओं से नहीं है । हेतु यहां संप्रयुक्तक हेतु और सहभूहेतु है । फल यहाँ अधिपतिफल और पुरुषकारफल (२.५८) है । आश्रय से ६ इन्द्रिय (चक्षुरादि) और आलम्बन से रूपादि ६ विषय इष्ट हैं। ५. यदि अनागत धर्म सभागहेतु नहीं है तो सभागहेतु का पूर्व भाव नहीं है। इसका अभूत्वा भाव है (अभूत्वा भवति)। किन्तु वैभाषिक की ठीक यही प्रतिज्ञा है। सभागहेतु की सभागहेतुत्व-अवस्था पूर्व न थी, यह पहले न होकर अब होती है (अभूत्वा भवति)। किन्तु द्रव्य जो सभागहेतु-विशेष है अपूर्व ? वैभाषिक के प्रतिपक्षी के अनुसार प्रकरण की शिक्षा है कि अनागत सत्कायदृष्टि और तत्सं- प्रयुक्त धर्म सत्कायदृष्टि के फल और हेतु दोनों हैं। किन्तु अनागत सत्कायदृष्टि न सहभू- हेतु है, न संप्रयुक्तकहेतु और न विपाकहेतु । साधारण होने के कारण कारणहेतु को गणना नहीं करते। पारिशेष्य से यह सभागहेतु और सर्वत्रगहेतु हो सकता है । वैभाषिक के अनुसार प्रकरण यहाँ अनागत सत्कायदृष्टि का उल्लेख नहीं करता किन्तु (वेद- नादि) धर्मों का करता है जो इस सत्कायदृष्टि से संप्रयुक्त हैं : यह सत्कायवृष्टि के सहभू- हेतु और संप्रयुक्तकहेतु हैं और सहभू-संप्रयुक्तक हेतुभूत सत्कायदृष्टि के फल हैं। तीन पाठ हैं। दो पाठ जो यहाँ उद्धृत हैं उनके अतिरिक्त एक यह भी पाठ है : अनागतं च सत्कायदृष्टिसंप्रयुक्तं दुःखसत्यं स्थापयित्वा", "अनागत और सत्कायदृष्टि-संप्रयुक्त दुःख- सत्य को भी स्थापित कर" (पृ. २५१, टिप्पणी २ B१ b देखिये) नीचे पृ. २७०, टिपणी २ देखिये । अर्थात् : "जिस धर्म का जो धर्म हेतु होता है वह धर्म कदाचित् उस धर्म का हेतु न हो ऐसा नहीं होता; जिस धर्म का जो धर्म फल होता है. ..... जिस धर्म का (चक्षुविज्ञान आदि का) जो धर्म (चक्षुरादि) आश्रय होता है. ....... जिस धर्म का (चक्षुविज्ञान का). जो धर्म (रूपादि) आलम्बन होता है वह धर्म कदाचित् उस धर्म का आलम्बन न हो ऐसा नहीं होता। शुआन्-चांडा के अनुसारः "हेतु से कारण, सहभू, संप्रयुस्तक और विपाकहेतु समझना चाहिये फल से अधिपति, पुरुषकार और विपाकफल" ।परमार्थ : "हेतु से संप्रयुक्तकहेतु: फल से अधिपति और पुरुषकारफल समझना चाहिये ।"