पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/२१४

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वित्तीय कोशस्थान : हेतु २०१ 1

. . 1 . नहीं है । अनागत धर्म सभागहेतु नहीं है। एक बार उत्पन्न होकर यह सभागहेतु होता है। वास्तव में हेतु-सामग्य का फल अवस्था है, द्रव्य धर्म नहीं है। बनागतवमं द्रव्यतः है; हेतुसामग्री उसे अतीत से वर्तमान में आनीत करती है, उसे वर्तमानावस्था से युक्त करती है और इसी से मभागहेतुत्व से युक्त करती है; ५.२५ देखिये । ६. इसमें आप क्या दोप देनते हैं यदि अनागत धर्म उसी प्रकार सभागहेतु हो जिस प्रकार वह विपाकहेतु (२.५४ सी) है ? [२६१] यदि यह सभागहेतु होता तो ज्ञानप्रस्थान में (ऊपर, पृ. २५७, पं.१५) इसका ग्रहण होता किन्तु ज्ञानप्रस्थान इस प्रश्न के उत्तर में कि 'सभागहेतु क्या है ?' केवल इतना कहता है कि अनागत कुशलमूल अनागत कुशलमूलों का सभागहेतु है। हम नहीं समझते कि इस वचन में अनागत धर्म का अग्रहण हमारे विरुद्ध कोई तर्क है। वास्तव में इस वचन में केवल उन सभागहेतुबों का ग्रहण है जो फल-दान और फल-ग्रहण क्रिया में समर्थ हैं व्या २०२ .३] (फलदानग्रहणसमर्थ, २.५९) । ऐसा नहीं है (नंतदस्ति) क्योंकि सभागहेतु का फल निप्यन्द-फल (२.५७ सी) है, हेतु- सदृश फल है और इस प्रकार का फल अनागत धर्म के अयुक्त है क्योंकि भनागत में पूर्व-पश्चिमता का अभाव है (पूर्वपश्चिमताभावात् व्या २०२.१२])। दूसरी ओर यह युक्त नहीं है कि एक उत्पन्न धर्म-अतीत या प्रत्युत्पन्न-एक अनागत धर्म का निष्यन्द है यथा एक अतीत धर्म एक प्रत्युत्पन्न धर्म का निप्यन्द नहीं है क्योंकि हेतु के पूर्व फल नहीं होता । ----अतः अनागत धर्म सभाग- हेतु है । ७. यदि ऐसा है तो अनागत धर्म विपाकहेतु (२.५४ सौ) भी न होगा क्योंकि (१) विपाक- फल (२.५६ ए) का अपने हेतु के पूर्व और साथ अयोग है; (२) अनागत मन्च में पूर्व-पश्चिमता का अभाव है। वैभाषिक उत्तर देता है कि ऐसा नहीं है। समागहेतु और उसका निष्यन्द-फल सभाग-धर्म हैं। इस कल्पना में कि अनागत अवस्था में उनका अस्तित्व है, जहां पूर्व-पश्चिमता का अभाव है। वह अन्योन्यहेतु होते हैं और इसलिये अन्योन्यफल होते हैं किन्तु दो वर्षों को अन्योन्य-निष्यन्दता युक्तिनती नहीं है। इसके विपरीत विपाकहेतु और विपाक फल असभाग हैं। यदि पूर्व-पश्चिमता का अभाव हो तो भी अन्योन्य हेतु-फलता का प्रसंग नहीं होता क्योंकि हेतु और फल के भिन्न-भिन्न [२६२] लक्षण हैं। सभागहेतु अवस्या व्यवस्थित है : अनागत धर्म समागहेतु नहीं है। धर्म वर्तमाना- वस्था में, अतीतावस्था में, सभागहेतु होता है। विपाकहेतु लमग-व्यवस्थित है (लमगव्यत्र- स्थितस्तु विपाकहेतुः [या २०३.३]) । हमने कहा है कि एक धर्म केवल स्वभूमि के प्रमों का सभागहेतु होता है। क्या यह नियम नव वर्मों के लिये है ? यह केवल मानव-धमों के लिये है, अनान्त्रवन्धमों के लिये नहीं । 1 . . !