पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/२१७

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२०४ अभिधर्मकोश मय धर्मों के नहीं, क्योंकि इस धातु में इन धर्मो का अभाव होता है : जब रूपधातु में चिन्तन आरम्भ करते हैं तब समाधि उपस्थित होती है। रूपावचर भावनामय धर्म रूपावचर भावनामय धर्मों के सभागहेतु हैं, रूपावचर श्रुतमय धर्मों के नहीं, क्योंकि यह हीन हैं। आरूप्यावचर भावनामय धर्म आरूप्यावचर भावनामय धर्मों के सभागहेतु हैं । इस धातु में श्रुतमय और चिन्तामय धर्मों का अभाव है । पुनः, प्रायोगिक धर्म ९ प्रकार के हैं : मृदु-मृदु, मृदु-मध्य आदि । --मृदु-मृदु ९ प्रकार के धर्मों के सभागहेतु है; मृदु-मध्य मृदु-मृदु प्रकार को वर्जित कर आठ प्रकार के धर्मों के सभाग- हेतु हैं । यह नीति है। सर्व "उपपत्तिप्रतिलम्भिक" कुशल ९ प्रकार के हैं। यह परस्पर सभागहेतु हैं । क्लिष्ट धर्म भी इसी प्रकार के हैं। अनिवृताव्याकृत धर्म चार प्रकार के हैं (२,७२); पश्चाद्वर्ती पूर्ववर्ती की अपेक्षा 'विशिष्ट' है : विपाकज धर्म (१.३७), निषद्यादि ऐपिथिक धर्म, शैल्पस्थानिक धर्म और निर्माणचित्त (७.४८)।यह चार प्रकार यथाक्रम चार, तीन, दो और एका प्रकार के सभागहेतु हैं। [२६६] पुनः क्योंकि कामावचर निर्माणचित्त चतुर्ध्यान (विभाषा, १८.४) का फल हो सकता है अतः इसी विशेष को यहाँ व्यवस्थापित करने का अवकाश है : निर्माण-चित्त के चार प्रकार हैं। यह अपने प्रकार के अनुसार यथाक्रम चार, तीन, दो या एक निर्माणचित्त के सभागहेतु हैं। वास्तव में जो निर्माणचित्त उत्तरध्यान का फल है वह उस निर्माणचित्त का सभागहेतु नहीं है जो अधरध्यान का फल है : महायत्नसाध्य (आभिसंस्कारिक) सभागहेतु (निर्माणचित्त) का हीयमान फल नहीं होता । इस नियम के व्यवस्थित होने पर निम्न प्रश्नों का विसर्जन करते हैं (अत एवाहुः [व्या २०८.२]): १. क्या कोई उत्पन्न अनास्त्रवधर्म है जो अनुत्पत्तिधर्मा अनास्रवधर्म का हेतु न हो ? हाँ । उत्पन्न दुःखे धर्मज्ञान अनुत्पत्तिधर्मा, दुःखे धर्मज्ञानक्षान्तियों का हेतु नहीं है । पुनः विशिष्ट न्यून का हेतु नहीं है । २. क्या एक सन्ताननियत पूर्वप्रतिलब्ध (: जिसकी प्राप्ति का पूर्वलाभ हो चुका है) अनानवधर्म है जो पश्चादुत्पन्न अनास्रवधर्म का हेतु न ? हाँ । अनागत दुःखे धर्मज्ञानक्षान्ति [किन्तु जिनकी प्राप्ति मार्ग के प्रथम क्षण में प्रतिलब्ध हो चुकी हैं] उत्पन्न दुःखे धर्मज्ञान का हेतु नहीं हैं। क्योंकि फल हेतु से पूर्व का नहीं होता अथवा क्योंकि अनागत धर्म सभागहेतु नहीं है । । आभिसंस्कारिकस्य सभागहेतो_पमानं फलं न भवति। [ध्या २०७.२८] ५ परमार्य : आचार्य कहते हैं ।--विभाषा, १८,५ ।