पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/२१८

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द्वितीय कोशस्थान : हेतु २०५ ३. क्या पूर्वोत्पन्न अनात्रवधर्म है जो पश्चादुत्पन्न बनानववर्म का हेतु न हो ? हाँ। विशिष्ट (= अधिमात्र) न्यून का हेतु नहीं है । यथा जब उत्तरफल से परिहीण 'अधरफल का संमुखीभाव करता है तो उत्तरफल अवरफल का हेतु नहीं है। पुनः पूर्वोत्पन्न [२६७] दुःखे धर्मज्ञान की प्राप्ति उत्तरक्षणसहोत्पन्न (दुःखेऽन्वयज्ञानक्षान्तिक्षणे आदि) दुःखे धर्मज्ञानक्षान्ति की प्राप्तियों का सभागहेतु नहीं है क्योंकि यह नई प्राप्तियाँ न्यून है। ५३ सी-डी. केवल वित्त और चैत्त संप्रयुक्तकहेतु हैं।' चित्त और चैत्त संप्रयुक्तकहेतु हैं । क्या इसका यह अर्थ है कि भिन्नकालज, भिन्नसन्तानज चित्त और चत्त परस्पर संप्रयुक्तक- नहीं 1 अतः क्या हम कहेंगे कि एकाकार अर्थात् एक नीलादि आकार और एकालम्बन अर्थात् एक नौलादि मालम्बन चित्त-वत्त संप्रयुक्तकहेतु है ? नहीं। इसमें भी वही प्रसंग उपस्थित होता है : भिन्नकालन और भिन्नसन्तानज चित्त और चैत्त का एक माकार और एक मालम्बन होता है। क्या हम कहेंगे कि एकाकार और एकालम्बन चित्त-चत्तों को एक काल का भी होना चाहिये? यह पर्याप्त नहीं है क्योंकि एका काल में बहुजन नवचन्द्र का दर्शन करते हैं। अतः आचार्य इतना अधिक कहते हैं : ५३ डी. जिनका सम मात्रय है। ज़िन चित्त-चंत्तों का अभिन्न बाश्रय है वह परस्पर संप्रयुक्तकहेतु हैं। 'सम' का अर्थ 'अभिन्न' है। [२६८] यथा चक्षुरिन्द्रिय का एक क्षण (१) एक चक्षुर्विज्ञान, (२) विज्ञान-संप्रयुक्त वेदना और अन्य चत्तों का आश्रय है। यही नीति अन्य इन्द्रियों के लिये है यावत् मनस् : मन- इन्द्रिय का एका भण एक मनोविज्ञान और तत्संप्रयुक्त चत्तों का आश्रय है। जो संप्रयुक्तकहेतु है वह सहभूहेतु भी है। इन दो हेतुओं में क्या भेद हैं ?' वर्म सहभूहेतु कहलाते हैं क्योंकि वह अन्योन्यफल है (अन्योन्यफलायन [व्या २०९.२२])। यथा सहसायिकों का मार्गप्रयाण परस्पर बल से होता है इसी प्रकार चित्त बैत का फल है, चत्त चित्त का फल है। । संप्रयुक्तकहेतुस्तु चित्तचत्ताः [व्या २०९.४] व्याख्या : तु शब्दोऽवधारणे भिन्नक्रमश्च । व्या २०९.५] विभाषा, १६, १२-'संपयुत्ता पर कयावत्यु, ७.२ । समाश्रयाः ॥ व्या २०९.२०] १ 'सम' का अर्थ 'तुल्य भी होता है। अतः आचार्य स्पष्ट करते हैं। विभाषा, १६, १५ इस वस्तु पर ६ मत देती है। १ t