पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/२१९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२०६ अभिधर्मकोश धर्म संप्रयुक्तकहेतु कहलाते हैं क्योंकि उनकी समप्रवृत्ति (समप्रयोगार्थेन [च्या २०९.२५] प्रयोग-प्रवृत्ति) होती है अर्थात् उनमें पूर्वनिर्दिष्ट (२.३४) पांच समता होती हैं । सह- सार्थिकों की यात्राअन्योन्य बल से होती है। पुनः उनकी सम अन्नपानादि परिभोग-क्रिया होती है । इसी प्रकार चित्त और चैत्त के अभिन्न आश्चय, अभिन्न आकारादि होते हैं : यदि पांच समताओं में से किसी एक का भी अभाव हो तो उनकी समप्रवृत्ति नहीं होती और वह संप्रयुक्त नहीं होते।' सर्वत्रगाख्यः क्लिष्टानां स्वभूमौ पूर्वसर्वगाः। विपाकहेतुरशुभाः कुशलाश्चैव सास्रवाः ॥५४॥ ५४ ए-बी. पूर्व सर्वग स्वभूमिक क्लिष्ट धर्मों के सर्वत्रगहेतु हैं । [२६९] अनुशय कोशस्थान में (५.१२) हम सर्वग का व्याख्यान करेंगे । पूर्वोत्पन्न अर्थात् अतीत या प्रत्युत्पन्न, स्वभूमिक सर्वग स्वभूमिक पश्चिम क्लिष्ट धर्मों के जो संप्रयोग या समुत्थानवश (४.९ सी) क्लेशस्वभाव हैं सर्वत्रगहेतु हैं । सर्वग क्लिष्ट धर्मों के सामान्य कारण हैं। यह निकायान्तरीय क्लिष्ट धर्मों के भी हेतु हैं (निकाय, २.५२ वी) : इनके प्रभाव से अन्य निकायों में उत्पन्न क्लेश सपरिवार उत्पन्न होते हैं (उपजायन्ते) । अतः सभागहेतु से पृथक् इनकी व्यवस्था होती है।' क्या आर्य पुद्गल के क्लिष्टधर्म (रागादि) सर्वत्रगहेतुक हैं ? किन्तु आर्य के सब सर्वग प्रहीण हैं क्योंकि यह दर्शनप्रहातव्य है । काश्मीर वैभाषिक स्वीकार करते हैं कि सब क्लिष्ट धर्मों के हेतु दर्शनप्रहातव्य धर्म हैं । क्योंकि प्रकरणपाद के यह शब्द हैं : दर्शनप्रहातव्य धर्म किन धर्मों के हेतु होते हैं ? क्लिष्ट धर्म और दर्शनप्रहातव्य धर्मों के विपाक के ।~-अव्याकृत किन धर्मों के हेतु होते हैं ? अव्याकृत संस्कृत धर्म और अकुशल धर्मों के ।-क्या कोई दुःखसत्य है जो सत्कायदृष्टिहेतुक हो और जो सत्कायदृष्टि का हेतु न हो ? समानपानस्नानशयनादिपरिभोगक्रियायां प्रयोगस्तद्वन् समप्रयोगत्वम् एषामन्योन्यं भवति । अत एवाह । एकेन हि विना न सर्वे संप्रयुज्यन्ते । [व्या २०९. २६] ३ सर्वत्रगाख्यः क्लिष्टानां स्वभूमौ पूर्वसर्वगाः । [व्या २०९.३०] दुःखदर्शनप्रहातव्य सर्वत्रगहेतु से समुदय-निरोध-मार्ग-दर्शनप्रहातंव्य और भावनाप्रहा- तव्य क्लेश प्रवृत्त होते हैं। समुदयदर्शनप्रहातव्य सर्वत्रगहेतु से दुःख-निरोध-मार्ग-दर्शन- प्रहातव्य और भावनातहात्तव्य क्लेश प्रवृत्त होते हैं. इन्हें 'सर्वग' कहते हैं क्योंकि यह सर्वक्लेश-निकायों को प्राप्त होते हैं (गच्छन्ति), सर्वभाक् होते हैं (भजन्ते), सवको आलम्बन बनाते हैं (आलम्बन्ते) अथवा क्योंकि यह सर्वक्लेश- निकायों के हेतुभाव को प्राप्त होते हैं (हेतुभावं गच्छन्ति)। [व्या २१०.१२] ऊपर पृ० २५१ देखिये। क्योंकि शास्त्र में 'क्लिष्टधर्म' यह शब्द अविशेषित है इसलिये पृथग्जन और आर्य दोनों के क्लिष्टधर्म इष्ट हैं। अव्याकृत संस्कृत धर्म-निवृताव्याकृत और अनिवृताध्याकृत-इष्ट हैं। आकाश और अप्रति- संख्यानिरोध इन दो अव्याकृत असंस्कृत का निरास है। व्या २१०.२१] २ यथा तेषां २ ३ ४ ५