पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/२२२

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द्वितीय कोशस्थान : हेतु २०९ यह कैसे ? कामवातु में (१) एकस्कन्वका विपाकहेतु का एक फल होता है : स्वलक्षण (२.४५ सी) सहित प्राप्ति (२.३६वी); (२) द्विस्कन्धक विपाव्हेतु का एक फल होता है : काय-वाक्- फर्म और उनकी जात्यादि; (३) चतुः स्कन्धका विपाकहेतु का एक फल होता है : स्वलक्षणसहित कुशल और अकुशल चित्त-वैत । [२७३] रूपधातु में (१) एकस्कन्धक लिपाकहेतु का एक फल होता है : जात्यादि- सहित प्राप्ति, जात्यादिसहित असंजिसमापत्ति (२.४२ ए); (२) द्विस्कन्वक विपाकहेतु का एक फल होता है : स्वलक्षणसहित प्रयम ध्यान की विज्ञप्ति (४.२); (३) चतुःस्कन्धक विपाकहेतु का एक फल होता है : असमाहित (क्योंकि समाहित चित्त में सदा संवररूप, ४.१३ होता है, बत्तः उसमें पंचकन्व होते हैं) कुशलचित्त और उसके लक्षण ; (४) पंचस्कन्धक विपाकहेनु का एक फल होता है : समाहित चित्त और उसके लक्षण । आरूम्यवातु में (१) एकस्कन्वक विपाकहेतु का एक फल होता है : स्वलक्षणसहित प्राप्ति और निरोवतमापत्ति (२.४३); (२) चतुःस्कन्धक विपाकहेतु का एक फल होता है : स्वलक्षणसहित चित्त और चैत । ४. एक कर्न है जिसका विपाक केवल एक पायतन में अर्थात् केवल धर्मायतन (१.१५) में संगृहोत है : वह कर्म जिसका विपाक जीवितेन्द्रिय है (२.४५ ए)। वास्तव में जिस कर्म का विपाक जोवितेन्द्रिय है जोवितेन्द्रिय और उसके जात्यादि (२.४५ सी) अवश्य उस कर्म के विपाक होते हैं। दोनों धर्मायतन में संगृहीत हैं । जित कर्म का मन-इन्द्रिय विपाक है उसके दो आयतन-जन-आयतन (१.१६ वो) और धनायतन (जिसमें वेदनादि बार भन-इन्द्रिय के सहभू जात्यादि होते हैं)-अवश्य विपाक होते [२७४] जिस कर्म का विपाक प्रष्टव्यायतन (१.१० डो) होता है उसके अवश्य दो में इन फलों के पौनःपुन्येन उत्पाद की कोई मर्यादा नहीं है अतः विपाक का केवल एक ही अर्थ है : विपरिणाम (?) और पाक ।" ' अस्ति कर्म यत्यैकमेव धर्मायतनं विपाको विपच्यते [च्या २१३.१२] ।-विभाषा १९, १४-शुआन्-चाल : "जो कर्म जोवितेन्द्रियादि का उत्पाद करता है। 'आदि से निकाय- सभाग और लक्षण अभिप्रेत है। आचार्य वसुमित्र इस प्रतिज्ञा को नहीं स्वीकार करते। जीवितेन्द्रिय साक्षेपककर्म (४.९५) का फल है। यदि जीवित विपाक कामधातु में विपच्यमान होता है (विपच्यते) तो कललादि अवस्था में कार्यन्द्रिय और जीवितेन्द्रिय अवश्य होते हैं। अन्त को अवस्थाओं में पांच अन्य इन्द्रिय और होते हैं। यदि जीवितेन्द्रिय रूपवातु में दिपच्यमान होता है तो सात आयतन होते हैं। आरूपधातु में मन-आयतन और धर्मायतन होते हैं। यशोमित्र इन सूचनाओं का विचार करते है और संघभद्र को उद्धृत करते हैं। यशोमित्र जिस प्रतिज्ञा का विरोध करते हैं वह आरूप्यधातु से संबन्ध रखती है: एक क्षणविशेष में आल्प्योपपन्न सत्व का विपाकज चित्त (मन-आयतन) नहीं होता । १४