पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/२२४

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द्वितीय कोशस्थान : फल २११ अतीत-प्रत्युत्पन्न धर्म सर्वत्रग, सभागहेतु (२.५२ वी) हो सकते हैं। अतीत, प्रत्युत्पन्न और अनागत धर्म संप्रयुक्तक, सहभू और विपाकहेतु हो सकते हैं। कारिका कारणहेतु (२. ५० ए) का उल्लेख नहीं करती : सर्वाध्वग संस्कृत धर्म कारणहेतु हैं; असंस्कृतधर्म अध्य- विनिर्मुक्त' हैं । वह कौन फल है जिसके यह हेतु हैं ? किन फलों के कारण यह हेतु अवधारित होते हैं ? ५५ सी-डी. संस्कृत और विसंयोग फल हैं।' मूलशास्त्र में कहा है कि "कोन धर्म फल हैं ?--संस्कृत और प्रतिसंख्यानिरोध।" [२७६] आक्षेप-यदि असंस्कृत फल है तो इसका एक हेतु होना चाहिये जिस हेतु के लिये कह सकें कि इस हेतु का यह फल है। पुनः क्योंकि आप इसे कारणहेतु (२.५० ए) मानते हैं इसलिये इसका फल होना चाहिये जिस फल के लिये कह सकें कि इस फल का यह हेतु है। सर्वास्तिवादिन् उत्तर देता है कि केवल संस्कृत के हेतु-फल होते हैं । ५५ डो. असंस्कृत के हेतु और फल नहीं होते ।' क्योंकि पड्विध हेतु और पंचविध फल असंस्कृत के लिये असंभव है। (१) १. क्यों नहीं मानते कि मार्ग का वह भाग जिसे आनन्तर्यमार्ग' कहते हैं विसंयोगफल (२.५७ डी) का कारणहेतु है ? हमने देखा है कि कारणहेतु वह हेतु है जो उत्पाद में विघ्न नहीं करता किन्तु असंस्कृत होने से विसंयोग का उत्पाद नहीं होता । उसका कारणहेतु के समान आनन्तर्यमार्ग नहीं होता। २. अतः विसंयोगफल कैसे है ? यह किसका फल है ? यह मार्ग का फल है क्योंकि इसकी प्राप्ति मार्गवल (६.५१) से होती है : दूसरे शब्दों में योगी मार्ग से विसंयोग की प्राप्ति (२.३६ सी-डो) का प्रतिलाभ करता है । ३ ४ संस्कृतं सविसंयोग फलम् विसंयोग अर्थात् विसंयोगफल (२.५७ डी, ६.४६) प्रतिसंख्या निरोप या निर्वाण (१.६) है। यह एक असंस्कृत है। यह अहेतुक है, इसका फल नहीं है, किन्तु यह कारणहेतु (२. ५० ए) है, यह फल है (२.५७ डा)। ज्ञानप्रस्थान, ५.४ प्रकरण, ३३ वी, १६ । हम इसका उद्धार कर सकते हैं : फलधर्माः कतमे । सर्वे संस्कृताः प्रतिसंस्थानिरोधश्च । न फलवर्माः कतमे । आकाशम् अप्रतिसंख्या- तिरोधः । सफलवर्माः कतमे। सर्वे संस्कृताः । अफलधर्माः कतमे । सर्वेऽसंस्कृताः । "कीन धर्म फल हैं ? सब संस्कृत और प्रतिसंख्यानिरोध। कोन धर्म फल नहीं हैं ? आकाश और अप्रतिसंख्यानिरोध । फिन धर्मों का फल होता है ? सर्व संस्कृत । किन धमों का फल नहीं होता ? सर्व असंस्कृत ।" तशो, २६, पृ० ७१४, ७१६ ' नासंस्कृतस्य ते [व्या २१८.६] मिलिन्द, २६८-२७१ । आनन्तर्यमार्ग क्लेश का समुच्छेद करता है और उसके अनन्तर विमुक्तिमार्ग होता है जिसमें योगी विसंयोग की प्राप्ति का ग्रहण करता है, ६.२८ । २