पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/२२५

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२१२ अभिधर्मकोश ३. अतः विसंयोग का प्रतिलाम (प्राप्ति) मार्ग का फल है, विसंयोग स्वयं फल नहीं है क्योंकि मार्ग का सामर्थ्य विसंयोग की प्राप्ति के प्रति है, विसंयोग के प्रति उसका असामर्थ्य है। [२७७] विपर्यास ! एक भाग के प्रतिलाभ और दूसरे के विसंयोग के प्रति मार्ग के सामर्थ्य में विविधता है। मार्ग प्रतिलाभ का उत्पाद करता है; मार्ग विसंयोग की प्राप्ति कराता है (प्रापयति) । अतः यद्यपि मार्ग विसंयोग (=प्रतिसंख्यानिरोध) का हेतु न हो तथापि हम यह कह सकते हैं कि यह मार्ग का फल है ।' ४. क्योंकि असंस्कृत का अधिपति-फल (२.५८ डी) नहीं है इसलिये उसे कारणहेतु कैसे कह सकते हैं ? असंस्कृत कारणहेतु है क्योंकि धर्मो की उत्पत्ति के प्रति इसका अनावरणभाव है किन्तु इसका फल नहीं है क्योंकि अध्व-विनिर्मुक्त होने से यह फल के प्रतिग्रहण और दान में असमर्थ है (२.५९ ए-बी)। ५. असंस्कृत हेतु है इसका सौत्रान्तिक प्रतिषेध करते हैं। वास्तव में सूत्र यह नहीं कहता कि हेतु असंस्कृत है। यह पर्याय से कहता है कि केवल संस्कृत हेतु है : “जो हेतु, जो प्रत्यय रूप ....विज्ञान का उत्पाद करते हैं वह भी अनित्य हैं। अनित्य हेतु और प्रत्ययों से उत्पन्न रूप विज्ञान कैसे नित्य होंगे ?" १ कुछ आचार्यों का मत है कि ५ प्रकार के हेतु हैं : (१) कारकहेतु, बीज अंकुर का कारक हेतु है; (२) ज्ञापकहेतु, अग्नि का धूम; (३) व्यंजक, घट का दीप; (४) ध्वंसक, घट का मुद्गर; (५) प्रापक, देशान्तर का रथ। [व्या २१७.३३] २ ये हेतवो ये प्रत्यया रूपस्य. . . . विज्ञानस्योत्पादाय तेऽप्यनित्याः (संयुक्त, १, ५) [च्या २१८.२० । (५ से परमार्थ का स्पष्ट मत-भेद है।) सौत्रान्तिक का उत्तर : सूत्र में केवल जनक उक्त है। अतः असंस्कृत [यद्यपि अनित्य नहीं है] आलम्बन-प्रत्यय हो सकता है। वस्तुतः इसमें केवल इतना उल्लेख है कि जो हेतु-प्रत्यय विज्ञान का उत्पाद करते हैं वह अनित्य है। इसमें यह उक्त नहीं है कि विज्ञान के सब प्रत्यय अनित्य हैं। सर्वास्तिवादिन का उत्तर : क्या यह केवल जनकहेतु को अनित्य नहीं कहता? अतः यह इसका प्रतिषेध नहीं करता कि असंस्कृत केवल इस कारण कारणहेतु है क्योंकि वह अविघ्नभाव से अवस्थित है। सौत्रान्तिक का उत्तर :-सूत्र-वचन है कि असंस्कृत आलम्बन-प्रत्यय है। इसमें यह उक्त नहीं है कि यह कारणहेतु । अतः उसका लक्षण इस प्रकार नहीं होना चाहिए--"वह हेतु जो विघ्नकारी नहीं है।" टिप्पणो १, इस पर विभाषा, १६, पृ० ७९,२ : एकोत्तर में १ से १०० तक धर्म परिगणित थे किन्तु अव १० पर अवसान है और १-१० में भी कई विनष्ट हो गये हैं, स्वल्प ही अवशिष्ट हैं। आनन्द के निर्वाण पर ७७००० अवदान और सूत्र तथा १०००० शास्त्र विनष्ट हो गये