पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/२२६

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द्वितीय कोशस्थान : फल २१३ सर्वास्तिवादिन् उत्तर देता है : यदि नित्य, असंस्कृत हेतु नहीं है तो यह विज्ञान का आलम्बन- प्रत्यय (२.६३) भी नहीं होगा । सौत्रान्तिक-सूत्र में अवधारण है कि जो हेतु और प्रत्यय उत्पाद में समर्थ हैं वह अनित्य हैं। सूत्र यह नहीं कहता कि विज्ञान के सव प्रत्यय अनित्य हैं। अतः असंस्कृत विज्ञान का आल-. म्वन-प्रत्यय हो सकता है क्योंकि 'आलम्बन-प्रत्यय' जनक नहीं है। [२७८] सर्वास्तिवादित्--सूत्र जनक हेतुओं के लिये कहता है कि यह अनित्य हैं। अतः सूत्र असंस्कृत के कारणहेतुल का प्रतिषेध नहीं करता क्योंकि उसका अनावरणभावमात्र है। सौत्रान्तिक-सूत्र में आलम्बन-प्रत्यय (२.६१ सी) उक्त है किन्तु कारणहेतु उक्त नहीं है जो विघ्न नहीं करता। अतः यह असंस्कृत का हेतुत्व सिद्ध नहीं करता। सर्वास्तिवादिन्–वास्तव में सूत्र यह नहीं कहता कि जो विघ्नभाव में अवस्थान नहीं करता वह हेतु है। किन्तु यह उसका विरोध भी नहीं करता। बहुत से सूत्र अन्तहित हो गये हैं। इसका निश्चय कैसे करें कि सूत्र में असंस्कृत का कारणहेतुत्व उक्त नहीं है ? (२) सौत्रान्तिक-विसंयोग धर्म क्या है ? सर्वास्तिवादिन्---मूलशास्त्र (ज्ञानप्रस्थान, २, २) कहता है कि विसंयोग प्रतिसंख्या- निरोध (२.५७ डो) है । सौत्रान्तिक-मैंने जब आपसे प्रश्न किया (१.६) कि प्रतिसंख्यानिरोध क्या है तब आपने उत्तर दिया कि “यह विसंयोग है।" मैं आपसे पूछता हूँ कि विसंयोग क्या है और आप यह उत्तर देते हैं कि "यह प्रतिसंख्यानिरोध है।" यह चक्रक है और इससे असंस्कृत धर्म जिसका यहां विचार हो रहा है उसके स्वभाव का व्याख्यान नहीं होता। आपको कोई दूसरा व्याख्यान करना चाहिये। सर्वास्तिवादिन-यह धर्म स्वभाववश द्रव्य है, अवाच्य है। केवल आर्य इसका साक्षात्कार' करते हैं, इसका प्रत्यात्मसंवेदन होता है। इसके सामान्य लक्षणों का यह कहकर निर्देशमात्र हो सकता है कि यह दूसरों से भिन्न एक कुशल, नित्य द्रव्य है जिसकी संज्ञा प्रतिसंख्यानिरोव है और जिसे विसंयोग भी कहते हैं। (३) सौत्रान्तिक की प्रतिज्ञा है कि असंस्कृत, त्रिविध असंस्कृत, (१.५ वी) द्रव्य नहीं है। तीन धर्म जिनका यहाँ प्रश्न है रूपवेदनादि के समान द्रव्यान्तर, भावान्तर नहीं हैं। सूत्राणि च बहून्यन्तहितानि मूलसंगीतिभ्रंशात् [व्या २१८.२९] हम ऐसा विचार सकते हैं कि आगे के पृष्ठों में वसुबन्धु सर्वास्तिवादिन-वैभाषिक के तर्को के साथ पूरा न्याय नहीं करते। वह उन वचनों का, यया उदान, ८.३ कर (इतिवृत्तक, ४३' उदानवर्ग, २६.२१) उल्लेख नहीं करते जो निर्वाण के द्रव्यत्व को संभावना को कम कर देते हैं। संपभद्र वसुबन्धु और अन्य आचार्यों का खण्डन करते हैं जो असंस्कृत का प्रतिषेध करते हैं (न्यायानुसार, २३.३, ९० बी ४---९५ बो)। उनका व्याख्यान अतिविस्तृत है। इसलिये उसके लिये यहां स्थान नहीं है। हम भूमिका में कम से कम उसके एक अंश का अनुवाद वेंगे।