पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/२२७

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२१४ अभिधर्मकोश [२७९] १. जिसे 'आकाश' कहते है वह स्प्रष्टव्य का अभावमात्र है अर्थात् संप्रतिघ द्रव्य का अभावमात्र है। विघ्न को न पाकर (अविन्दन्तः) अज्ञानवश लोग कहते हैं कि यह आकाश २. जिसे प्रतिसंख्यानिरोध या निर्वाण कहते हैं वह प्रतिसंख्या (प्रज्ञा) के बल से अन्य अनुशय, अन्य जन्म का अनुत्पाद है जब उत्पन्न अनुशय और उत्पन्न जन्म का निरोध होता है।' ३. जब प्रतिसंख्या-बल के विना प्रत्ययवैकल्यमात्र से धर्मो का अनुत्पाद होता है तब इसे अप्रतिसंख्यानिरोध कहते हैं । यथा जब अन्तरामरण निकायसभागका (२.१०, ४१.) शेष करता है तब उन धर्मो का अप्रतिसंख्यानिरोध होता है जो इस निकायसभाग में उत्पन्न होते यदि इसका प्रवर्तन होता रहता। ४. एक दूसरे निकाय के अनुसार प्रतिसंख्यानिरोध प्रज्ञावश अनुशयों का अनागत अनु- [२८०] त्पाद है; अप्रतिसंख्यानिरोध दुःख का अर्थात् जन्म का, क्लेशापगमवश, न कि प्रत्यक्षतः प्रज्ञावश, अनागत अनुत्पाद है । [अतः प्रथम सोपधिशेषनिर्वाणधातु है, द्वितीय निस्मविशेष- निर्वाणधातु है ।] अनुशयप्रत्ययवैकल्लात् पश्चादुःखाजातिः । न प्रज्ञावलात् । किन्तु सौत्रान्तिका कहता है कि दुःख का अनागत' अनुत्पाद प्रतिसंख्या के विना सिद्ध नहीं होता। अतः यह प्रतिसंख्यानिरोध ही है । ५. एक दूसरे निकाय के अनुसार अप्रतिसंख्यानिरोध स्वरसनिरोध के योग से उत्पन्न धर्मों का पश्चाद् अभाव है । इस विकल्प में अप्रतिसंख्यानिरोध नित्य न होगा क्योंकि अनुशय के विनष्ट हुएं विशा अप्रति- संख्यानिरोध का अभाव होता है । किन्तु क्या प्रति संख्यानि रोष का पूर्ववर्ती प्रति संख्याविशेष नहीं होता? अतः यह भी नित्य न होगा क्योंकि पूर्व के अभाव में पर का भी अभाव होता है । आप यह नहीं कह सकते कि प्रतिसंख्यानिरोध इसलिये नित्य नहीं है क्योंकि इसका पूर्ववर्ती प्रतिसंख्या है : वास्तव में प्रतिसंख्या इसका पूर्ववर्ती नहीं है। आपको यह कहने का अधिकार नहीं है कि प्रतिसंख्या पूर्ववर्ती है और 'अनुत्पन्न धर्मों का अनुत्पाद' परवर्ती है। हम व्याख्यान उत्पन्नानुशयजन्मनिरोधे प्रतिसंख्याबलेनान्यस्यानुशयस्य जन्मनश्चानुत्पादः प्रतिसंख्या निरोधः [व्या २१९.३] । ए. अनुशय का निरोध समुदयसत्य-निरोध है (उसका निरोध जो सत्यतः दुःख-समुदय है)। यह सोपविशेषनिर्वाण है। उत्पाद या जन्म का निरोध दुःखसत्य-निरोध है (उसका निरोध जो सत्यतः दुःख है) । यह निरुपधिशेषनिर्वाण है। वो. 'अनुशय' से पंचम कोशस्थान में वर्णित ९८ अनुशयों की वासना समझना चाहिये । १ जापानी संपादक के अनुसार स्थविर । जापानी संपादक के अनुसार महासांघिक । स्वरसनिरोधात् [व्या २१९.२२], प्रज्ञा के वल से नहीं जैसा प्रतिसंख्यानिरोध में होता है। १ १ २