पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/२२८

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द्वितीय कोशस्थान : फल २१५ करते हैं। अनुत्पाद सदा से द्रव्यसत् है । प्रतिसंख्या के अभाव में धर्मों की उत्पत्ति होगी। यदि प्रतिसंख्या की उत्पत्ति होती है तो उनका आत्यन्तिक रूप से उत्पाद नहीं होगा। उनके अनुत्पाद के विषय में प्रतिसंख्या का सामर्थ्य यह है : (१) प्रतिसंख्या के पूर्व उनकी उत्पत्ति में प्रतिबन्ध नहीं होता; (२) प्रतिसंख्या के होने पर उन धर्मों की उत्पत्ति नहीं होती जिनकी उत्पत्ति में पूर्व प्रतिबन्ध नहीं हुआ था (अकृतोत्पत्तिप्रतिवन्ध [व्या २१९.२४]) । किन्तु यह अनुत्पाद का उत्पाप नहीं करता । (३) सर्वास्तिवादिन् सौत्रान्तिक का खण्डन करता है:--यदि निर्वाण अनुत्पादमात्र है तो [२८१] सूत्र में (संयुक्त, २६, २)यह कैसे उक्त है कि "श्रद्धादि पंचेन्द्रिय के अभ्यास, आसेवन और भावना का फल अतीत, अनागत और प्रत्युत्पन्न दुःख का प्रहाण है ?" ...-आप इस सूत्र-पद का क्या अर्थ करते हैं ? वास्तव में यह प्रहाण निर्वाण से अन्य द्रव्य नहीं है और केवल अनागत धर्म का अनुत्पाद हो सकता है, अतीत और प्रत्युत्पन्न धर्म नहीं। सीत्रान्तिक----यह सूत्र निर्वाण के हमारे लक्षण का विरोध नहीं करता । वास्तव में 'अतीत प्रत्युत्पन्न दुःख के प्रहाण से' सूत्र का अभिप्राय अतीत-प्रत्युत्पन्न दुःख को आलम्बन बनाने वाले क्लेश के प्रहाण से है। हमारा यह अर्थ एक दूसरे वचन से (संयुक्त, ३, १७) युक्त सिद्ध होता है : “रूप, वेदना. विज्ञान में जो छन्दराग है उसका प्रहाण करो। छन्दराग के प्रहीण होने पर तुम्हारे रूप विज्ञान प्रहीण और परिज्ञात (परिज्ञा) होंगे।” इन्द्रिय सूत्र में उक्त 'अतीत-प्रत्युत्पन्न दुःख का प्रहाण' इस वाक्यांश को इस प्रकार समझना चाहिये। यदि इन्द्रिय सूत्र का यह दूसरा पाठ किसी को मान्य हो : "इन्द्रियों के अभ्यास से त्रैयध्विक क्लेश का प्रहाण होता है" तब भी यही नय है । अथवा अतीत क्लेश पौर्वजन्मिक (पूर्वे जन्मनि भव) है, प्रत्युत्पन्न क्लेश ऐजन्मिक है । अतीत या प्रत्युत्पन्न ऐकक्षणिक क्लेश का यहाँ विचार नहीं है। १८ तृष्णाविचरितों के लिये (अंगुत्तर, २.२१२) भी ऐसा ही है : अतीत जन्म के विचरितों को अतोत, प्रत्युलन्न जन्म के विचरितों को प्रत्युत्पन्न और अनागत जन्म के विचरितों को अनागत कहते हैं। [२८२] अतोन और प्रत्युत्पन्न क्लेश अनागत में दलेश की उत्पत्ति के लिए प्रत्युत्पन्न ३ अतीतानागतप्रत्युत्पन्नस्य दुःखस्य प्रहाणाय संवर्तते [व्या २१९.२९]-कथावत्यु, १९.१ से तुलना कीजिये । अंगुत्तर, २.३४ । अर्थात् छन्द (अनागते प्रार्थना) और राग (प्राप्तेऽऽध्यक्सानम्) । [व्या २१९.३४] यो रूपे छन्दरागस्तं प्रजहीत । छन्दराम प्रहोणे एवं वस्तद्पं प्रहीणं भविष्यति । [व्या २१९.३३] रूप के प्रहाण से आनन्तर्वमार्ग, परिक्षा से विमुक्तिमार्ग (६.३०) अभिप्रेत है (जापानी संपा- दक की विवृति)। बाद के लिये संयुत, ३.८ से तुलना कोजिये । परमार्य, ५, पृ० १९२ फालन, १