पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/२२९

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२१६ अभिधर्मकोश सन्तति में बीज-भाव आहित करते हैं। इस वीज-भाव के प्रहाण से अतीत-प्रत्युत्पन्न क्लेशद्वय भी प्रहीण होते हैं : यथा विपाक-क्षय से कर्म क्षीण होता है ऐसा उपचार होता है। अनागत दुःख या क्लेश का प्रहाण बोजाभाव से उनका अत्यन्त अनुत्पाद है । अतीत या अनागत दुःख के प्रहाण का दूसरा क्या अर्थ हो सकता है ? निरुद्ध और निरोवा- भिमुख के प्रति यत्न सार्थक नहीं होता। २. सर्वास्तिवादिन्-यदि असंस्कृत 'सत्' नहीं है तो यह सूत्र में कैसे उक्त है कि "सब संस्कृत-असंस्कृत धर्मों में विराग अन है ?" 'एक असत् धर्म असत् धर्मों में अग्न कैसे हो सकता है? सौत्रान्तिक -हम यह नहीं कहते कि असंस्कृत असत् हैं। एक अभाव भी है। यह अभाव- प्रकार हैं। शब्द की उत्पत्ति के पूर्व कहते हैं कि “यह शब्द का पूर्व अभाव है"; शब्द के निरोध के पश्चात् कहते हैं कि "यह शब्द का पश्चात् अभाव है" (अस्ति शब्दस्य पश्चादभाव:) किन्तु यह सिद्ध नहीं है कि अभाव का भाव होता है (भवति)। असंस्कृतों के लिये यही नय है । यद्यपि इसका अभाव है तथापि एक असंस्कृत अर्थात् विराग, सर्व अकुशल का अनागत में आत्यन्तिक अभाव, प्रशंसा के योग्य है। यह अभाव अभावों में विशिष्ट है। सूत्र उसको यह कहकर [२८३] प्रशंसा करता है कि यह अग्न है जिसमें विनेयजन उसके प्रति प्रोति-सुख का उत्पाद करें। ३. सर्वास्तिवादिन्-~-यदि प्रतिसंख्यानिरोध या निर्वाण अभाव है तो यह एक सत्य कैसे है ? यह तृतीय सत्य कैसे है ? 'आर्य सत्य' का क्या अभिप्राय है ? इसमें सन्देह नहीं कि 'सत्य' का अर्थ 'अविपरीत' है । आर्य जानते हैं कि किसका अविपरीतभाव है, किसका अविपरीत अभाव है : जो दुःख है उसे वह केवल दुःख करके ग्रहण करते हैं, जो दुःख का अभाव है उसे वह दुःख के अभाव के रूप में ग्रहण करते हैं। आप इसमें क्या विरोध देखते हैं यदि दुःख का अभाव, प्रतिसंख्यानिरोध एक सत्य है ? और, यह अभाव तृतीय सत्य है क्योंकि आर्यो से यह द्वितीय सत्य के अनन्तर दृष्ट और उद्दिष्ट होता है । ४. सर्वास्तिवादिन्--किन्तु यदि असंस्कृत अभाव हैं तो उस विज्ञान का आलम्बन जिसका आलम्बन आकाश और दो निरोध हे अवस्तु होगा। संयुक्त, ३१, १२ : ये केचिद् भिक्षवो धर्माः संस्कृता वा असंस्कृता वा विरागस्तेषामग्न आख्या- यते (४.१२७ को व्याख्या में उद्धृत); अंगुत्तर, ३.३४, इतिवृत्तक ६ ९०: यावता चुन्दि धम्मा संखता वा असंखता वा विरागो तेसं अग्गं अक्खायति । विराग-रागक्षय, प्रतिसंख्यानिरोध, निर्वाण---निर्वाण अप्रतिसंख्यानिरोध और आकाश से अग्र है (४.१२७ डो) । हम इसका उद्धार कर सकते हैं : अभावो भवतीति न सिध्यति-शुआन्-चाङ का मतभेद है : अभाव के लिय यह नहीं कह सकते कि इसका भाव है। अतः 'अस्' धातु का अर्थ सिद्ध होता है [: इस धातु का अर्थ 'भाव' नहीं है। इस प्रकार आगम असंस्कृतों के लिये कहता है कि