पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/२३५

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२२२ अभिधर्मकोश अधिपतिफल का उत्पाद करता है : सत्व इस फल का समान परिभोग करते हैं क्योंकि कर्म- समुदाय इसकी अभिनिवृत्ति में सहयोग करता है (पृ. २८८, टि. १) ५७ सी. हेतुसदृश फल निष्यन्द कहलाता है । [२९१] हेतुसदृश धर्म निष्यन्दफल है। सभागहेतु (२.५२) और सर्वत्रगहेतु (२. ५४ ए-बी) यह हेतुद्वय निष्यन्दफल प्रदान करते हैं । यदि सर्वत्रगहेतु का फल निष्यन्दफल है, हेतुसदृश फल है तो सर्वत्रगहेतु को सभागहेतु क्यों नहीं कहते ? सर्वत्रगहेतु का फल (१) भूमितः सदा हेतुसदृश है-यह तत्सदृश कामावचरादि है, (२) क्लिष्टतया हेतुसदृश है--हेतु के सदृश फल भी क्लिष्ट है। किन्तु प्रकारतः इसका हेतु से सादृश्य नहीं है। प्रकार (निकाय) से अभिप्राय प्रहाण-प्रकार से है : दुःखादिसत्यदर्शनप्रहातव्य (२.५२ बो), किन्तु जिसका प्रकारतः भी सादृश्य होता है वह सर्वत्रगहेतु सभागहेतु भी अभ्यु- पगत होता है। अतएव चार कोटि है : १. असर्वत्रग सभागहेतु : यथा रागादिक स्वनैकायिक क्लेश का सभागहेतु है, सर्ववगहेतु नहीं है; २. अन्यनैकायिक सर्वत्रगहेतु : सर्वत्रग क्लेश अन्यनैकायिक क्लेश का सर्वत्रगहेतु है, सभागहेतु नहीं है। ३. एकनैकायिक सर्वत्रगहेतु : सर्वत्रग क्लेश एकनकायिक क्लेश का सभागहेतु और सर्वगहेतु है। ४. इन आकारों को वर्जित कर अन्य धर्म न सभागहेतु हैं और न सर्वत्रगहेतु।' ५७ डो. बुद्धि से प्राप्यमाण क्षय विसंयोग है। विसंयोग या विसंयोगफल क्षय (=निरोध) है जो प्रज्ञा (धी) से प्रतिलब्ध होता है । अतः विसंयोग प्रतिसंख्या-निरोध है (ऊपर पृ० २७८ देखिये)। यद्वलाज्जायते यत्तत्फलं पुरुषकारजम् । अपूर्वः संस्कृतस्यैव संस्कृतोऽधिपतेः फलम् ॥५८॥ [२९२] ५८ ए-बी, एक धर्म उस धर्म का पुरुषकारफल होता है जिस धर्म के बल से यह उत्पन्न होता है। यह धर्म संस्कृत है। २ १ निष्यन्दो हेतुसदृशः [व्या २२४.२] फुशल धर्म दिलष्टादि धर्मों के सभागहेतु नहीं हैं। विसंयोगः क्षयो धिया या २२४.३१] यद् वलाज्जायते यत तत् फलं पुरुषकारजम् । व्या २२५.१] १