पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/२३७

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२२४ अभिधर्मकोश एक धर्म फल का प्रतिग्रहण करता है जब यह बीजभाव को उपगत होता है।' एक धर्म फल का दान उस काल में करता है जब वह इस फल को उत्पन्न होने का सामर्थ्य प्रदान करता है अर्थात् जिस क्षण में उत्पादाभिमुख अनागत फल को यह धर्म वह बल देता है जिससे वह वर्तमानावस्था में प्रवेश करता है । ५९ ए-बी. ५ हेतु वर्तमान होकर अपने फल का प्रतिग्रहण करते हैं। ५ हेतु केवल तभी अपने फल का प्रतिग्रहण करते हैं जब वह वर्तमान होते हैं : अतीत पहले ही अपने फल का प्रतिग्रहण कर चुके हैं, अनागत में कारित्र नहीं होता (५.२५) । कारणहेतु भी इसी प्रकार है किन्तु कारिका इसका उल्लेख नहीं करती क्योंकि कारणहेतु अवश्यमेव सफल नहीं है। [२९४] ५९ बी. दो वर्तमान होकर अपना फल प्रदान करते हैं । वर्तमान सहभूहेतु और संप्रयुक्तकहेतु ही फलप्रदान करते हैं : वास्तव में यह दो हेतु एक काल में फल का प्रतिग्रहण और दान करते हैं । ५९ सी. दो वर्तमान और अतीत अवस्था में अपना फल देते हैं। सभाग और सर्वत्रगहेतु वर्तमान और अतीत अवस्था में फल प्रदान करते हैं। वर्तमानावस्था में वह कैसे निष्यन्दफल (२.५६ सी) प्रदान करते हैं ? हमने देखा है (२.५२ बी, ५४ ए) कि वह अपने फल से पूर्व होते हैं । कहते हैं कि वर्तमानावस्था में वह फल प्रदान करते हैं क्योंकि वह उनका समनन्तर म निर्वर्तन करते हैं (समनन्तरनिर्वर्तनात्) [ब्या २२६.२३] । जब उनके फल की उत्पत्ति होती है तब वह अभ्यतीत होते हैं : वह पूर्व ही प्रदान कर चुके हैं, वह पुनः उसो फल को नहीं देते। (१) ऐसा होता है कि एक काल में एक कुशल सभागहेतु फल का प्रतिग्रहण करता है और फल नहीं देता। चार कोटि हैं : प्रतिग्रहण, दान, प्रतिग्रहण और दान, न प्रतिग्रहण, न दान। कुशलमूल की जिन प्राप्तियों का परित्याग कुशलमूल का समुच्छेद करनेवाला पुद्गल (४.८० ए) सर्वपश्चात् करता है वह प्राप्तियाँ फल काप्रतिग्रहण करती हैं, फलप्रदान नहीं करती।' ३ तस्य बीजभावोपगमनात् [व्या २३०.२१] - धर्म का सदा अस्तित्व है चाहे यह अनागत, प्रत्युत्पन्न या अतीत हो। जिस क्षण में यह वर्तमान होकर फल का हेतु या बोज होता है उस क्षण में हम कहते हैं कि यह फल का प्रतिग्रहण या आक्षेप करता है। व्याख्या कहती है कि बीज को उपमा सौत्रान्तिक प्रक्रिया है। "कुछ पुस्तकों में यह पाठ नहीं है" (क्वचित् पुस्तके नास्त्येष पाठः) [च्या २३०.२२] । अन्यत्र व्याख्या निरूपण करती है : प्रतिगृह तीत्याक्षिपन्ति हेतुभावेनोपतिष्ठन्त इत्यर्थः । व्या २२६.१२] इस कठिन विषय पर संघभंद्र, न्यायावतार, ९८ए, ३ देखिये। अस्ति कुशलः सभागहेतुः फलं प्रतिगृह्णाति न ददाति-विभाषा, १८.५ के अनुसार ! मृदुमृदु कुशलमूल की प्राप्तियाँ जो अन्त्य हैं और जिनका छेद होता है फलपरिग्रह करती हैं (फलपरिग्रहं कुर्वन्ति) फिन्तु अपना निष्यन्दफल नहीं देती क्योंकि जन्य कुशल क्षणान्तर का अभाव है। १ २ ३