पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/२३८

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द्वितीय कोशस्थान : फल २२५ [२९५] २. कुशलमूल की जिन प्राप्तियों का कुशलमूल का प्रतिसन्धान करनेवाला पुद्गल (४.८० सी) सर्वप्रथम प्रतिलाभ करता है वह फल देती हैं किन्तु फल का प्रतिग्रहण नहीं करतीं। इस प्रकार कहना चाहिये : यही प्राप्तियाँ जिनका सर्वपश्चात् परित्याग कुशलमूल का समुच्छेद करने वाला पुद्गल करता है उस काल में स्वफल प्रदान करती हैं किन्तु प्रतिग्रहण नहीं करती जिस काल में यह पुद्गल कुशलमूल का प्रतिसंधान करता है । ३. जिस पुद्गल के कुशलमूल असमुच्छिन्न हैं उसकी प्राप्तियाँ पूर्व की दो अवस्थाओं को स्थापित कर : कुशलमूल का समुच्छेद करने वाले पुद्गल की अवस्था, कुशलमूल का प्रतिसंधान करनेवाले पुद्गल की अवस्था-प्रतिग्रहण करती हैं और देती हैं। ४. इन आकारों को वर्जित कर अन्य अवस्थाओं में प्राप्तियाँ न प्रतिग्रहण करती हैं, न प्रदान करती हैं : यथा समुच्छिन्नकुशलमूल पुद्गल के कुशलमूलों की प्राप्तियाँ, ऊर्धभूमि से परिहीण पुद्गल के अर्श्वभूमिक कुशलों की प्राप्तियाँ। यह प्राप्तियाँ पूर्व ही स्वफल का प्रतिग्रहण कर चुकी हैं, अतः पुनः प्रतिग्रहण नहीं करतीं; वह प्रदान नहीं करती क्योंकि इन कुशलभूलों की प्राप्ति का वर्तमान में अभाव है। (२) अकुशल सभागहेतु के लिये विभाषा यही चार कोटि व्यवस्थापित करती है : १. अकुशल धर्मों की प्राप्तियाँ जिनका प्रहाण कामवैराग्य की प्राप्ति करनेवाला पुद्गल सर्वपश्चात् करता है । २. वह प्राप्तियाँ जिनका प्रतिलाभ कामवैराग्य से परिहीयमाण पुद्गल सर्वप्रथम करता ऐसा कहना चाहिये : यही प्राप्तियाँ जब पुद्गल कामवैराग्य से परिहीयमाण होता है । ३. पूर्व की दो अवस्थाओं को छोड़कर, अवीतराग पुद्गल की प्राप्तियाँ । [२९६] ४. इन आकारों को स्थापित कर अन्य सब अवस्थाओं की प्राप्तियाँ : यथा कामवीतराग और अपरिहाणधर्मा पुद्गल' की प्राप्तियाँ । (३) निवृताव्याकृत सभागहेतु का भी चतुष्कोटिक विधान है : १. निवृताव्याकृत धर्मों की अन्त्य प्राप्तियाँ जिनका त्याग अर्हत्वप्राप्त मार्य करता है । २. प्राप्तियाँ जिनका सर्वप्रथम प्रतिलाभ अर्हत्व से परिहीयमाणपुद्गल करता है। यह कहना अधिक युक्त होगा : अर्हत्व से परिहीयमाण पुद्गल की पूर्वोक्त प्राप्तियाँ । वसुबन्धु वैभाषिकों के बाद की आलोचना करते हैं। वास्तव में यह द्वितीय कोटिनिर्देश सावन है। व्या २२७.१०] कुशलमूल के प्रतिसन्धान-काल में कुशलमूलों की श्रेयधिक प्राप्तियों का प्रलिलाभ एक साथ होता है। इनमें से अतीत प्राप्तियाँ फल प्रदान करती हैं किन्तु प्रति- ग्रहण नहीं करती क्योंकि वह पूर्व ही प्रतिगृहीत है। किन्तु जो वर्तमान प्राप्तियाँ हैं उनके लिये यह कैसे अबधारित होता है कि वह स्वफल का प्रतिग्रहण नहीं करतों ? अतः प्रस्तावित निर्देश अविशेषित है।--संघभद्र विभाषा का समर्थन करते हैं।