पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/२३९

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अभिधर्मकोश ३. पूर्व की दो अवस्थाओं को छोड़कर शेष अवस्थाओं में भवान से अवीतराग पुद्गल की प्राप्तियाँ । ४. इन आकारों को वर्जित कर अन्य सब अवस्थाओं की प्राप्ति : अर्हत्व की प्राप्ति । (४) जो अनिवृताव्याकृत सभागहेतु फल देता है वह प्रतिग्रहण भी करता है (क्योंकि अनि- वृताव्याकृत यावत् परिनिर्वाण संनिहित होता है) किन्तु विना प्रदान किये यह स्वफल का प्रतिग्रहण कर सकता है : अर्हत् के चरम स्कन्धों का निष्यन्द नहीं होता। (५) अब तक हमने उन धर्मों का विचार किया है जो 'सालंबन' नहीं हैं । यदि हम चित्त और चैत्तों का क्षणशः विचार करें तो हम कुशल सभागहेतु के लिए निम्न चतुष्कोटिक विधान करेंगे:- १. यह प्रतिग्रहण करता है और प्रदान नहीं करता। जव एक कुशल चित्त के अनन्तर क्लिष्ट या अनिवृताव्याकृत चित्त का सम्मुखीकरण होता है तो यह कुशल चिल, सभागहेतु होने के कारण, एक निष्यन्दफल अर्थात् उत्पत्ति-धर्मी या अनुत्पत्ति-धर्मी, एक अनागत कुशलचित्त का प्रतिग्रहण करता है अर्थात् आक्षेप करता है । यह निष्यन्दफल प्रदान नहीं करता क्योंकि इसका अनन्तर चित्त जो दिलष्ट' या अनिवृताव्याकृत है कुशल चित्त का निष्यन्द नहीं है । २. यह प्रदान करता है और प्रतिग्रहण नहीं करता । जब क्लिष्ट या अनिवृताव्याकृत चित्त के अनन्तर कुशलचित्त का सम्मुखीकरण होता है तब एक पूर्वक कुशलचित्त निष्यन्दफल, अर्थात् कुशलचित्त जिसका हम विचार कर रहे हैं, प्रदान करता है । यह पूर्वक कुशलचित्त फल का प्रतिग्रहण नहीं करता क्योंकि फल पूर्व प्रतिगृहीत है। [२९७] ३. यह प्रतिग्रहण करता है और प्रदान करता है । जब कुशलचित्त के अनन्तर कुशलचित्त का सम्मुखीकरण होता है तब पूर्वकचित्त द्वितीय चित्त का निष्यन्द फलत्वेन प्रतिग्रहण करता है और उसे प्रदान करता है। ४. यह न प्रतिग्रहण करता है, न प्रदान करता है । जब क्लिष्ट या अनिवृताव्याकृत चित्त के अनन्तर क्लिष्ट या अव्याकृत चित्त को सम्मुखीकरण होता है तो पूर्व का कुशलचित्त जो सभाग- हेतु हे फल का प्रतिग्रहण नहीं करता क्योंकि इसने फल को पूर्व ही प्रतिगृहीत किया है ; यह फल प्रदान नहीं करता क्योंकि यह उत्तर काल में फल प्रदान करेगा। अकुशल सभागहेतु की भी योजना इसी प्रकार होनी चाहिये । ५९ डी. एक हेतु अतीत होकर स्वफल प्रदान करता है। [वसुमित्र, महासांधिक, ४४ वाँ वाद विपाकहेतु अतीत होकर स्वफल प्रदान करता है क्योंकि यह फल अपने हेतु का सहभू या सभनन्तर नहीं है। . 9 अनिवृताव्याकृतस्य पश्चात् पादक इति पश्चात्पादकलक्षणं व्याख्यातमिति न पुनरुच्यते । ध्या २२९.२४]