पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/२४२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

द्वितीय कोशस्मान : प्रत्यय हेतु-प्रत्यय क्या है ? ६१ डी. हेत्वाख्य प्रत्यय पांच हेतु है । यदि कारणहेतु को वर्जित करें तो शेष पांच हेतु हेतु-प्रत्ययता होते हैं। चित्तचत्ता अचरमा उत्पन्नाः समनन्तरः । आलम्बनं सर्वधर्माः कारणाख्योऽधिपः स्मृतः ॥६२॥ समनन्तर-प्रत्यय क्या है ? ६२ ए-बी. चरम को वर्जित कर अन्य उत्पन्न चित्त-चैत समनन्तर-प्रत्यय है। यदि अर्हत् के निर्वाण-काल के चरम चित्त और चरम चैत्त को वर्जित करें तो अन्य सब उत्पन्न चित्त-चत्त समनन्तर-प्रत्यय है। (१) केवल चित्त और चत्त समनन्तर-प्रत्यय हैं । यह किन धर्मों के समनन्तर-प्रत्यय हैं ? १. इस प्रकार के प्रत्यय को समनन्तर कहते हैं क्योंकि यह सम और अनन्तर धर्मों का उत्पाद करता है । 'सम्' उपसर्ग समान के अर्थ में है । अतः४ केवल चित्त-चैत्त समनन्तर-प्रत्यय हैं क्योंकि अन्य धर्मों के लिये, यथा रूपी धर्मों के लिये, हेतु और फल में समता नहीं है । वास्तव में कामावचर रूप के अनन्तर कदाचित् दो रूप, एक कामावचर रूप और एक रूपावचर रूप" उत्पन्न होते हैं; कदाचित् कामावचर और अना- [३०१] सव यह दो रूप उत्पन्न होते हैं। किन्तु कामावचर चित्त के अनन्तर एक कामाक्चर और एक रूपावचर चित्त कभी युगपत् नहीं उत्पन्न होते । रूपों का सम्मुखीभाव आकुल है : किन्तु समनन्तर-प्रत्यय आकुल फल नहीं प्रदान करता । अतः रूपी धर्म समनन्तर-प्रत्यय नहीं हैं। वसुमित्र कहते हैं कि एक ही काय में औपचयिक रूप-सन्तान के समुच्छेद के विना दूसरे औपचयिक रूप की उत्पत्ति हो सकती है । अतः रूप समनन्तर-प्रत्यय नहीं है । भदन्त कहते हैं: रूप के अनन्तर अल्पतर या बहुतर की उत्पत्ति होती है । अतः रूप सम- 4 २ हेत्वाख्यः पंच हेतवः ॥ 3 चित्तचत्ता अचरमा उत्पन्नाः समनन्तरः । ४ विभाषा, ११, ४, द्वितीय आचार्य । यहाँ अविज्ञप्ति रूप इष्ट है। जब प्रातिमोक्षसंवर (कामधातु का अविज्ञप्ति रूप) के समादान के अनन्तर एक पुद्गल सालवध्यान में समापन्न होता है तब वह ध्यान (रूपयातु का भवि- ज्ञप्तिरूप) के संवरे का उत्पाद करता है किन्तु कासधातु का अविज्ञप्तिरूप प्रवृत्त होता रहता है (४.१७ बी-सी) देखिये। १ उस कोटि में जिसमें वह पुद्गल जिसने प्रातिमोक्षसंवर का समादान किया है अनास्रव-ध्यान में समापन होता है। यह दूसरा मत है जिसका विभाषा में व्याख्यान है। -जब भोजन करके पुद्गल सोता है या ध्यान-समापन्न होता है तो आहारज और औपचर्चायक-रूप स्वप्नज या समाधिज औपचयिक- रूप युगपत् उत्पन्न होते हैं। (१.३७ देखिये) भदन्त पर जो स्वविर सौत्रान्तिक है (व्याख्या) प०३६ देखिये।-विभाषा का चतुर्य मत । २ ३